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की अनुभूति नहीं होती। जो जानता है, वह चेतन है; जो नहीं जानता, वह अचेतन है। स्मृति एवं बुद्धि तथा मस्तिष्क के समस्त व्यापार 'चेतना' नहीं हैं। पदार्थ के रूपान्तरण से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है, मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती। बुद्धि एवं मन की भाँति चेतना भी 'स्नायुजाल की बद्धता' अथवा 'विभिन्न तन्त्रिकाओं का तन्त्र' है, जो अन्ततः अणुओं एवं आणविक क्रियाशीलता का परिणाम है। भविष्योन्मुखी दृष्टि से विचार करने पर यह स्वीकार करना होगा कि दोनों की अपनी-अपनी भिन्न सत्ताएँ हैं। ____ अजीव अथवा जड़ पदार्थ का रूपान्तरण; ऊर्जा (प्राण), स्मृति, कृत्रिम प्रज्ञा एवं बुद्धि में सम्भव है, किन्तु इसमें चैतन्य नहीं होता। कम्प्यूटर चेतना-युक्त नहीं है। कम्प्यूटर को यह चेतना नहीं होती कि वह है, वह कार्य कर रहा है। कम्प्यूटर मनुष्य की चेतना से प्रेरित होकर कार्य करता है। उसे सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। उसे स्व-संवेदन नहीं होता। 'मैं हूँ,' 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ'-शरीर को इस प्रकार के अनुभवों की प्रतीति नहीं होती। इस प्रकार के अनुभवों की जिसे प्रतीति होती है, वह शरीर से भिन्न है। जिसे प्रतीति होती है उसे ही जैनदर्शन आत्मा शब्द से अभिहित करता है। आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है; आत्मा में जानने की शक्ति है। आत्मा के द्वारा जीव को अपने अस्तित्व का बोध होता है। ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा है। आत्मा अमूर्त तत्त्व है। वह इन्द्रियों का विषय नहीं है। इन्द्रियाँ उसे जान नहीं पातीं। इससे इन्द्रियों की सीमा सिद्ध होती है। स्रष्टा, सृष्टि और सृजन-स्वयम्भू; न ही कोई सृष्टिकर्ता
दर्शन जीवन का शुद्ध विज्ञान है, जब इस विज्ञान को व्यवहार का रूप दिया जाता है, तो वह धर्म बन जाता है। जैनधर्म संसार का प्राचीनतम धर्म होते हुए भी सम्पूर्णत: वैज्ञानिक दृष्टिबोध से संबलित धर्म है। जैनदर्शन एवं विचारधारा का उद्गम सम्भवतः प्रागैतिहासिक काल से है। यदि जैन साहित्य की उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की अवधारणा को सही मानें, तो इस महान दर्शन का उद्गम अनन्त काल से सिद्ध होता है। अनन्त काल से मानव-जीवन एवं चिन्तन को सही दिशा देने वाले इस धर्म की जड़ें इतनी-गहरी तभी हो सकती हैं, जब मानव के परलोक के साथ-साथ इस दर्शन का प्रभाव उसकी इहलौकिक क्रियाओं में भी परिलक्षित होता हो तथा उसे प्रभावित करता हो। इस दर्शन ने मानव को स्वावलम्बन एवं स्वतन्त्रता की दिशा प्रदान की है; यही कारण है कि आज भी इस अक्षुण्ण तथा अविरल दर्शन का प्रवाह व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज एवं समाज से ऊपर उठकर देश एवं सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की दिशा में प्रवृत्त है।
476 :: जैनधर्म परिचय
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