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भारी तथा भयानक गलतफहमी से हम जितनी जल्दी मुक्त हो सकें, उतना ही संसार का भला है। धर्म तो उतना ही आदिम, पुरातन एवं सनातन है कि जितनी आदिम, पुरातन या सनातन यह सृष्टि या यह विश्व-रचना है। धर्म इस सृष्टि के हर अवयव में समाया हुआ है और विज्ञान का समस्त अध्ययन तथा उसके समस्त आविष्कार प्रकृति या सष्टि में व्याप्त धर्म (यानी वस्तु के मौलिक स्वभाव) का ही अनुसंधान हैं तथा उसी का सदुपयोग या दुरुपयोग हैं। यदि प्रकृति अथवा इस भौतिक सृष्टि के हर अवयव में अपना मौलिक नियम (यानी अपना मौलिक धर्म) नहीं पाया जाता, तो विज्ञान का यह सारा ताबूती ढाँचा बिखर जाता। धर्म तो 'स्वयम्भू वैश्विक नियम' (सैल्फबॉर्न कॉस्मिक लॉ) का नाम है। धर्म को न राम ने पैदा किया और न कृष्ण ने। राम और कृष्ण (तथा ये सभी तथाकथित धर्म-प्रवर्तक महामानव) धर्म के विभिन्न टीकाकार अथवा व्याख्याता मात्र हैं, धर्म के जनक या आविष्कारक नहीं हैं। धर्म ने ही अवतारों, मसीहाओं और पैगम्बरों को पैदा किया है न कि अवतारों, मसीहाओं और पैगम्बरों ने धर्म को पैदा किया। सत्य और ज्ञान : भेद नहीं
भगवान महावीर की देशना में ज्ञान ही सत्ता है। चित्त चैत्य है, यानी सत्य चेतना स्वरूप है। ज्ञान में तर्क का अवसर नहीं रहता है। भगवान महावीर 12 बरस तक सत्य की खोज करते रहे। उन्होंने जाना कि सत्य और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। सत्य जानना है, मानना नहीं। मानना दासता है। अन्य की खोज व मान्यता के प्रति समर्पण है। जानना निज का है, निज का अनुभव है। जीवन का सत्य और गणित अतीव रहस्यपूर्ण है। किसी भी कथन, ग्रन्थ, व्यक्ति या कृतित्व को मानना नहीं होता है। अग्रिम खोज ही स्थगित हो जाती है। मानने में कष्ट नहीं होता है। जानना विज्ञान है, जिसमें खोज निरन्तर है। जैन दृष्टि जानने की है। तीर्थंकर मार्ग दिखाते हैं, बनाते नहीं हैं। वे द्रष्टा, ज्ञाता होकर साक्षी होते हैं। किसी भाषा, विचार, आचार या व्यवहार में बँधते नहीं हैं, बाँधते भी नहीं। हर नया प्रयोग अपने समय में क्रान्ति होकर परिवर्तन लाता है, वही समय के साथ परम्परा बन जाता है। इसलिए जानना, देखना और बोध करना ही जीवन-क्रान्ति है। भगवान महावीर इसी क्रान्ति के प्रणेता हैं। वे कहीं आग्रह नहीं रखते हैं। आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त और व्यवहार में 'भी' सूत्र; ऐसी अनुपम देन हैं, जिसमें विवाद, हिंसा या हस्तक्षेप का अवसर ही नहीं रहता है।
चिन्तन के क्षेत्र में 'भी' अनेकान्तिक है। अनेकान्त किसी भी विचार या प्रणाली को नकारता नहीं है और स्वीकारने का आग्रह भी नहीं करता। वह मानता है कि हर 'मैं' और विचार का स्वतन्त्र अस्तित्व है। सब की अपनी जीवन-प्रणाली है, जिससे
धर्म और विज्ञान :: 481
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