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नारकियों के दुःख-नारकीजीव पूर्वोपार्जित पापकर्मों के फलस्वरूप अपनी आयुपर्यन्त यथावसर क्षेत्र-सम्बन्धी, मानसिक, शारीरिक, असुर-देव-कृत तथा परस्पर उदीरित तीव्र दःखों को भोगते हैं। वहाँ की भूमि का तीव्र वेदनाकारी स्पर्श, नुकीली दूब, भयानकपर्वत, दुःखदायी यन्त्रों से भरी गुफाएँ, सन्तप्त लौह पुतलियाँ, स्तम्भ, शस्त्र समान असिपत्रवन, शाल्मली वृक्ष, दुर्गन्धित खून, पीप, कीड़ों से भरी खारी-वैतरिणी-तालाब, कुम्भी पाक, खौलते कड़ाहे, शारीरिक सैकड़ों रोग, शीत-उष्ण बाधाएँ, परस्पर मार-काट, निरन्तर आर्त-रौद्र व क्रूर परिणाम, तीव्र भूख-प्यास की पीड़ाएँ, तीसरे नरक तक असुरकुमार देवों द्वारा दिलाये जाने वाले दुःखों से ये नारकी तीव्र-वेदना का अनुभवन करते रहते हैं। भूख की तीव्र-वेदना होने पर नारकी यहाँ की अत्यन्त दुर्गन्धित अशुभ विषैली मिट्टी खाते हैं। वह भी उन्हें भूख-प्रमाण नहीं मिलती। यह मिट्टी नीचे के नरकों में उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी अशुभ व विषैली होती जाती है। अन्तिम नरक में 49वें पटल की मिट्टी का एक टुकड़ा यदि इस मध्यलोक की भूमि पर आ जाए, तो वह 24.5 कोश तक के जीवों को मार देगी। शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाने पर भी नारकियों का अकाल-मरण नहीं होता। पारे के कणों के समान वे टुकड़े परस्पर फिर मिल जाते हैं। पलक झपकने भर को भी सुख नहीं मिलता। वे यहाँ सदाकाल दुःख ही दुःख भोगते हैं। (त्रि. सा.-207)
नारकियों की अन्य विशेषताएँ-- नारकी जीव निरन्तर तिर्यंचों की अपेक्षा अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर देह-वेदना और विक्रिया वाले होते हैं । कषायानुरंजित योग (मन-वचन-काय) की प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। छह लेश्याओं में से नरकों में अशुभ से अशुभतम लेश्याएँ होती हैं- पहले-दूसरे नरक में कापोत, तीसरे में ऊपर कापोत नीचे नील, चौथे में नील, पाँचवें में ऊपर नील व नीचे कृष्ण, छठे में कृष्ण और सातवें नरक में परमकृष्ण लेश्या होती है। इनकी द्रव्यलेश्या (शारीरिक वर्ण) आयुपर्यन्त सदा एक-सी रहती है, किन्तु भावलेश्याएँ (परिणाम) अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती
__नारकियों के शरीर भी अत्यन्त विकृत हुंडक संस्थान वाले, बड़े डरावने और बदशक्ल होते हैं। अनेक रोगों से भी घिरे होते हैं। ये अपृथक् विक्रिया करते हैं। अपने ही शरीर को भेड़िया, व्याघ्र, घुग्घू, सर्प, कौआ, बिच्छू, रीछ, गिद्ध, कुत्ता आदि जानवर बना लेते हैं तथा त्रिशूल, अग्नि, बरछी, भालों, मुद्गर आदि के रूप में भी अपने को बना लेते हैं। शरीर वैक्रियिक होते हुए भी सप्त धातुमय होता है। शरीर में मल-मूत्र, पीव आदि सभी वीभत्स सामग्री भरी होती है। आयु पूर्ण होते ही इनका शरीर वायु से आहत मेघपटल या कपूर के समान विलीन हो जाता है। इनकी दाढ़ी-मूंछ नहीं
518 :: जैनधर्म परिचय
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