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गणित
डॉ. अनुपम जैन
किसी काल-विशेष में गणितीय ज्ञान की समृद्धि उस देश की उस काल में सभ्यता की उन्नत अवस्था को व्यक्त करती है। भारत में गणितीय विकास की परम्परा 78 हजार वर्ष प्राचीन है। मोइन-जो-दारो की खुदाई में प्राप्त अवशेष तथा वेदों में संख्यासूचक शब्दों, योग, गुणन आदि की संक्रियाओं तथा परवर्ती साहित्य संहिताओं, ब्राह्मणों, उपनिषदों के सन्दर्भ इसके पुष्ट प्रमाण हैं। जैन एवं बौद्ध साहित्य में भी गणितीय अभिरुचि की यथेष्ट सामग्री उपलब्ध है। श्रमण एवं वैदिक दोनों परम्पराओं के साहित्य में उपलब्ध गणितीय सामग्री को भारतीय गणित की संज्ञा दी जाती है।' ___जैन आगम ग्रन्थों एवं उनकी टीकाओं, नियुक्तियों, भाष्यों तथा जैनाचार्यों द्वारा पारम्परिक ज्ञान के आधार पर रचित ग्रन्थों यथा षट्खण्डागम', कषायप्राभृत', आचार्य कुन्दकन्द द्वारा रचित पंचास्तिकाय', आचार्य उमास्वामी प्रणीत तत्त्वार्थ सूत्र एवं उनके टीका साहित्य में निहित गणितीय ज्ञान को जैन गणित की संज्ञा दी जाती है। टीका साहित्य के अतिरिक्त मूल एवं टीका-ग्रन्थों में आगत विषयवस्तु को स्पष्ट करने के भाव से लोकरचना विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों तिलोयपण्णत्ती (त्रिलोक-प्रज्ञप्ति), तिलोयसार (त्रिलोकसार)', जंबूदीव-पण्णत्ति-संगहो (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह), लोय विभाग (लोक विभाग) तथा गोम्मटसार (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड)", लब्धिसार", क्षपणासार', सिद्धान्तसार दीपक, त्रैलोक्य दीपक", त्रिलोक दर्पण आदि का भी सृजन किया गया, जो अनेक मौलिक गणितीय संक्रियाओं एवं सूत्रों से समृद्ध हैं।
जैन परम्परा के आचार्यों श्रीधर", महावीर", सिंहतिलकसूरि", राजादित्य”, ठक्करफेरु, हेमराज गोदीका ने लौकिक गणित के विषयों को स्पष्ट करने हेतु स्वतन्त्र गणितीय ग्रन्थों का सृजन किया एवं ये-सब जैन गणित की अमूल्य निधियाँ हैं। 1912 में एम. रंगाचार्य द्वारा महावीराचार्य कृत 'गणित-सार-संग्रह' के प्रकाशन से पूर्व भारतीय गणित की इस महत्त्वपूर्ण शाखा से कोई परिचित नहीं था। प्रो. बी.बी. दत्त द्वारा ही 1929 में 'The Jaina School of Mathematics 22 शीर्षक आलेख के प्रकाशन के माध्यम से भारतीय गणित की इस महत्त्वपूर्ण शाखा के समग्र अध्ययन का पथ प्रशस्त किया गया।
496 :: जैनधर्म परिचय
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