________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गणित का एक उद्देश्य गणना सम्बन्धी माडल प्रस्तुत करना है, किन्तु महावीराचार्य (850 ई.) 'गणित-सार-संग्रह' में लिखते हैं
बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे।
यत्किंचिद्वस्तु तत्सर्वं गणितेन बिना न हि।।7। और व्यर्थ के प्रलापों से क्या लाभ है? जो-कुछ इन तीनों लोकों में चराचर वस्तुएँ हैं उनका अस्तित्व गणित से विलग (अलग) नहीं है।
__ आत्म-कल्याण के प्रधान लक्ष्य को लेकर दीक्षा लेने वाले जैन आचार्यों/मुनियों तथा सुधी स्वाध्यायी विज्ञपुरुषों का लक्ष्य गणित का विकास कभी नहीं रहा, तथापि जैन साहित्य में निम्नांकित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु गणित का साधन के रूप में प्रयोग हुआ। 1. लोक के स्वरूप के विवेचन, तीन लोक एवं उसके विविध खण्डों के
आकार, प्रकार, क्षेत्रफल, घनफल आदि प्राप्त करना। इस क्रम में लौकिक
गणित के विषय विवेचित हुए। 2. कर्मों की प्रकृतियों के विश्लेषण, भेद-प्रभेद, समस्त जीव राशियों की
गणना, आयुष्य, संख्यात-असंख्यात, अनन्त विषयक गणितीय सिद्धान्तों की स्थापना। इसमें लोकोत्तर गणित का विकास हुआ, जिसमें कर्म के
निकायों (Systems) का विकास समाविष्ट है। लौकिक गणित के क्षेत्र में शून्य का प्रयोग एवं दाशमिक स्थानमान सूचियों का विकास बहुत महत्त्वपूर्ण है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों यजुर्वेद की याज्ञवल्क्य, वाजसनेय कृत वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तरीय संहिता में 101% (अर्थात् 20 पदों) तक की सूची मिलती है24, किन्तु जैनाचार्य महावीर (850 ई.) ने सर्वप्रथम 24 स्थानों की स्थानमान सूची दी, जिसमें अनेक पद नये हैं। तीर्थंकरों की संख्या 24 होने के कारण ही सम्भवतः महावीराचार्य को 24 पदों की सूची बनाने का विचार आया?
01 दश
10
एक
शत
सहस्र दश सहन लक्ष दश लक्ष कोटि दश कोटि शत् कोटि
गणित ::497
For Private And Personal Use Only