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8 उ.भो. भू. बा
8 म.भो.भू.बा
8 ज.भो. भू. बा
8 क. भो. भू. बा
8 लिक्षा
8 जूँ
8 यव
500 उत्सेधांगुल 24 अंगुल
4 हस्त
2000 धनुष 4 कोश
500 योजन
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1 मध्यम भोगभूमि का बालाग्र
1 जघन्य भोगभूमि का बालाग्र
1 कर्म भोगभूमि का बालाग्र
1 लिक्षा
1 जूँ
1 यव
1 उत्सेधांगुल
1 प्रमाणांगुल
1 हस्त
1 दण्ड / धनुष
1 कोश
1 योजन
1 प्रमाण योजन
4545.45 मील लगभग है ।
मात्र इतना ही नहीं, लोकोत्तर गणित के अन्तर्गत जो गणित आता है, उसकी प्रकृति लौकिक गणित से बिल्कुल भिन्न है । उसमें पल्य, सागर, उपमा मान आदि की इकाइयाँ हैं। लोक की रचना में प्रयुक्त इकाई रज्जु (राजु) भी असंख्यात प्रकृति की है, जिसकी सटीक गणना सम्भव नहीं है । केवल अनुमान ही लगाये जा रहे हैं । वैदिक परम्परा में जहाँ ज्यामिति का प्रारम्भिक विकास यज्ञ - वेदिकाओं की रचना हेतु किया गया था, वहीं जैन परम्परा में लोक के विभिन्न भागों के आकार, प्रकार, क्षेत्रफल, आयतन, जीव राशियों की संख्या आदि के ज्ञान हेतु ज्यामिति का विकास हुआ।
जैन परम्परा में गणित के किन-किन प्रकारों की चर्चा है, इसके विषय में जानकारी देने वाली एक गाथा स्थानांगसूत्र में है ।
दसविधे संखाणे पण्णत्ते तं जहा !
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परिकम्मं ववहारो रज्जू रासी कलासवन्ने (कलासवण्णे) य। जावंतावति वग्गो धणोय त तह वग्ग वग्गोवि कप्पो य । त । P
इस गाथा में संख्यान (गणित) के 10 प्रकारों की चर्चा है। स्थानांगसूत्र के व्याख्याकार अभयदेव सूरि ने सर्वप्रथम इसकी व्याख्या प्रस्तुत की थी। इसके पश्चात् बी. बी. दत्त, एच. आर. कापड़िया, मुकुट बिहारीलाल अग्रवाल, बी. एल. उपाध्याय, एल. सी. जैन आदि विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टियों से इनकी व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। हम यहाँ विभिन्न मतों को सारणीबद्ध कर रहे हैं
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गणित : : 501