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पहली और अन्तिम शर्त है। 'भी' अनेकान्तिक है, सन्तुलित है, इसी से स्वयं मार्ग
और स्वयं मंजिल है। सन्तुलन समन्वय है, आग्रह-मुक्त अहम्-शून्यता है। समन्वय में सब का दर्शन, विचार और प्रणाली समझने की तैयारी रहती है। जो समझने के लिए तत्पर नहीं है, उसे समझाने का अधिकार नहीं रह जाता है, वह अपनी पात्रता खो देता है।
जैन आगमिक साहित्य : कतिपय विज्ञान-सम्मत अवधारणाएँ
मानव की प्रकृति : एक वस्तु-निष्ठ-चिन्तन
श्रुत परम्परा से उद्भूत आगम साहित्य, द्वादशांग और चौहद पूर्वो के माध्यम से गणित, टोपोलोजी, खगोलशास्त्र, भूगोल, ज्योतिष, पदार्थकण, भौतिकी, जैविकी, पर्यावरण विज्ञान आदि की आधुनिक विज्ञान-सम्मत अवधारणाएँ, सशक्तता के साथ आख्यायित करता है और आचार्यों के वस्तुनिष्ठ प्रज्ञान को रेखांकित करते हुए विस्मय-बोध भी कराता है, उनके अन्तश्चैतन्य की प्रगल्भता के प्रति । जैनदर्शन के अनुसार, ब्रह्माण्ड शाश्वत है। यह दो द्रव्य; अर्थात् जीव और अजीव (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) के संयोग से निर्मित हुआ है। इनमें जीव द्रव्य चेतन है, जिसे 'आत्मा' शब्द से भी अभिहित किया जाता है। शेष पाँचों द्रव्य अजीव हैं, जिन्हें अचेतन, जड़
और अनात्म शब्दों से भी व्यवहृत किया जाता है। पुद्गल द्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और रूप गुणों वाला होने से इन्द्रियों का विषय है, पर आकाश, काल, धर्म और अधर्म के चार अजीव द्रव्य इन्द्रियगोचर नहीं हैं, क्योंकि उनमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप नहीं हैं, पर आगम और अनुमान से उनका अस्तित्व सिद्ध है।
हमारे भीतर दो द्रव्यों का मेल है-शरीर और आत्मा। शरीर अचेतन या जड है और आत्मा सचेतन है, ज्ञाता-द्रष्टा है, किन्तु वह स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द-रूप नहीं है। अतः पाँचों इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऐसा होने पर भी वह शरीर से भिन्न अपने पृथक् अस्तित्व को मानता है। जैन तत्त्वमीमांसा सात (कभी-कभी नौ, उपश्रेणियाँ मिलाकर) सत्य अथवा मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है, जिन्हें तत्त्व कहा जाता है। यह मानव की प्रकृति और उसका निदान करने का प्रयास है। प्रथम दो सत्यों के अनुसार, यह स्वयंसिद्ध है कि जीव और अजीव का अस्तित्व है। तीसरा सत्य है कि दो पदार्थों, जीव और अजीव के मेल से, जो योग कहलाता है, कर्म द्रव्य; जीव में प्रवाहित होता है। यह जीव से चिपक जाता है और कर्म में बदल जाता है। चौथा सत्य बन्ध का कारक है, जो चेतना (जो जीव के स्वभाव में है) की अभिव्यक्ति को सीमित करता है। पाँचवाँ सत्य बताता है कि नये कर्मों की रोक (संवर), सही चारित्र (सम्यक्चारित्र),
धर्म और विज्ञान :: 483
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