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प्रमुख गणितज्ञों में से एक थे ।
जैन गणित के आचार्यों को लघुगणक प्रणाली, लागारिथ्म्स, आधुनिक युग में उसके प्रवर्तक नैपियर (550-617 ई.) से चार सौ वर्ष पूर्व, ईसा का प्रारम्भिक शताब्दी में ज्ञात थी । केशववर्णीद्वारा रचित गोम्मटसार - जीवतत्त्व प्रदीपिका टीका को संस्कृत और कन्नड़ आदि दोनों ही भाषाओं में लिखा गया है। इस ग्रन्थ द्वारा जीवकाण्ड के रहस्यों का उद्घाटन कन्नड़ - मिश्रित संस्कृत में किया गया है | इस गणितीय प्रतिपादन में अबाध गति है; इसमें जो करणसूत्र उन्होंने दिये हैं, वे उनके लौकिक और अलौकिक गणित के ज्ञान को प्रकट करते हैं । इन्होंने अलौकिक गणित सम्बन्धी एक स्वतन्त्र ही अधिकार इसमें दिया है, जो त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णति) और त्रिलोकसार के आधार पर लिखा गया मालूम होता है। आचार्य अकलंक के लघीयस्त्रय और आचार्य विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थों के विपुल प्रमाण इसमें दिये गये हैं ।
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खगोलीय, ज्योतिषीय एवं भौगोलिक अवधारणाएँ
करणानुयोग शास्त्रों में भौगोलिक नक्शों द्वारा उत्तर तथा दक्षिणी अंचलों की प्रस्तुति करते हुए नदियों, पर्वतों का समानुपातिक प्रस्तुतीकरण, द्वीपों तथा समुद्रों के वलयों की अवस्थिति का उल्लेख तथा जम्बू द्वीप में समस्त आयामों की प्रस्तुति विशिष्टता के साथ हुई है। नक्शों में प्रस्तुतियाँ सीधी रेखा या गोल आकृति में निरूपित हुई हैं।
एक युग की अवधि पाँच वर्षों की बताई गयी है एवं सूर्य तथा चन्द्र की गतियों का भी आकलन किया गया है । अन्य ग्रहों तथा नक्षत्रों की गतिज अवस्थाओं का सटीक वर्णन प्रस्तुत किया गया है । दृवराशि तकनीक के आधार पर तिथियों तथा नक्षत्रों की गणना के तरीकों की व्याख्या की गयी है । खगोलीय अवधारणाओं की प्राविधियों की मीमांसा करते हुए अयनान्तों एवं विषुव सयानों के विषय में भी पर्याप्त चर्चाएँ की गयी हैं। अयनान्तों के आधार पर छाया की लम्बाई के अनुमापन के आधार पर समयांकन की विधि आख्यात हुई है और चन्द्रमा की विविध कलाओं का अभिज्ञान कर चन्द्रग्रहण की अवधि, बारम्बारिता आदि भी विवेचित हु हैं I
लोक को 343 घन राजू के आकार का निरूपित किया गया है, जिसमें अलोकाकाश की विद्यमानता निरूपित की गयी है ।
488 :: जैनधर्म परिचय
पदार्थ कणों का चिन्तन एवं विवेचन
जैनधर्म विश्व को शाश्वत, नित्य, अनश्वर और वास्तविक अस्तित्व वाला मानता है । पदार्थों का मूलतः विनाश नहीं होता, बल्कि उसका रूप परिवर्तित होता है। जैनधर्म का भौतिकीय अवबोध पुद्गल के अस्तित्व को महत्त्वपूर्ण रेखांकित करता है। जैन
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