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किये, चक्रीय चतुर्भुज के कई गुणों (कैरेक्टरिस्टिक्स) को प्रकाशित किया, बताया कि ऋणात्मक संख्याओं का वर्गमूल नहीं हो सकता, उन्होंने समान्तर श्रेणी के पदों के वर्ग वाली श्रेणी के पदों का योग निकाला और दीर्घवृत्त की परिधि एवं क्षेत्रफल का अनुभवजन्य सूत्र (इम्पेरिकल फॉर्मूला) प्रस्तुत भी किया।
नौवीं शताब्दी में आविर्भूत सुप्रसिद्ध दिगम्बर मनीषी महावीराचार्य के अंकगणित के ज्ञान की सराहना श्री डेविड यूजीन स्मिथ ने करते हुए, उनके द्वारा प्रवर्तित पोलीगॉन की अवधारणा को एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक चिन्तन के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। त्रिकोणमिति के क्षेत्र में ब्रह्मगुप्त, महावीराचार्य एवं भास्कराचार्य के अवदानों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए श्री डेविड ने त्रिभुज के क्षेत्रफल के निर्धारण हेतु निष्पादित नियमों में, महावीराचार्य की श्रेष्ठता का अभ्यंकन भी किया है। श्री ई.टी. बेल ने यह भी निष्पत्ति प्रस्तुत की है कि महावीराचार्य द्वारा प्रतिपादित प्रतीक विज्ञान एवं नहिक संख्या के वर्गमूल का निर्धारण नहीं हो पाने की अवधारणा मौलिक है। इसके साथ ही परिक्रमा गणित; जिसमें आठ आधारभूत गणितीय उपक्रम- वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, प्रत्युत्पन्न, भाग, संकलित एवं व्युत्कालित को समाहित करते हैं, करणानुयोग की कर्मसिद्धान्तोन्मुखी अवधारणाओं को परिपुष्ट करते हैं। जैन गणितज्ञों ने पाँच प्रकार की असीम संख्याएँ बतलायीं : ___1. एक दिशा में असीम, 2. दो दिशाओं में असीम, 3. क्षेत्र में असीम, 4. सर्वत्र असीम
और, 5. सतत असीम। तीसरी सदी ई.पू. में रचित भागवती सूत्रों में और दूसरी सदी ई.पू. में रचित साधनांग सूत्र में क्रम-परिवर्तन और संयोजन को सूचीबद्ध किया गया है।
जैन समुच्चय सिद्धान्त सम्भवतः जैन ज्ञान मीमांसा के स्याद्वाद के समानान्तर ही उद्भूत हुआ, जिसमें वास्तविकता को सत्य की दशा युगलों और अवस्था परिवर्तन युगलों के रूप में वर्णित किया गया है। अणुयोगद्वार सूत्र घातांक नियम के बारे में एक विचार देता है और इसे लघुगणक की संकल्पना विकसित करने के लिए उपयोग में लाता है। लाग आधार 2, लाग आधार 3 और लाग आधार 4 के लिए क्रमश: अर्ध आछेद, त्रिक आछेद और चतुराछेद जैसे शब्द प्रयुक्त किए गये हैं। षट्खंडागम में कई समुच्चयों पर लागरिथमिक फंक्शन्स को आधार 2 की क्रिया, उनका वर्ग निकालकर, उनका वर्गमूल निकालकर और सीमित या असीमित घात लगाकर की गयी है। इन क्रियाओं को बार-बार दुहराकर नये समुच्चय बनाये गये हैं। अन्य कृतियों में द्विपद प्रसार में आने वाले गुणकों का संयोजनों की संख्या से सम्बन्ध दिखाया गया है। चूंकि जैन ज्ञान-मीमांसा में वास्तविकता का वर्णन करते समय कुछ अंश तक अनिश्चयता स्वीकार्य है, अत: अनिश्चयात्मक समीकरणों से जूझने में और अपरिमेय संख्याओं का
धर्म और विज्ञान :: 485
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