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वह अलग भी है और जुड़ा हुआ भी है। यह ऐसा जीवन शास्त्र है, जो 'मैं' से 'मैं' के लिए होता है, अधूरेपन को परस्पर पूरता है। 'मैं' से 'मैं' निकलता नहीं है और न वह शून्य होता है। इसी सत्य की खोज निरन्तर बनी रहती है। एक सत्यनिष्ठ, हर स्तर पर 'मैं' के आत्म-भाव को बनाए रखता है। वह जानता है कि 'मैं' किसी 'मैं' से अलग नहीं है। हर 'मैं' वह है, जो वह स्वयं है। हर 'मैं' जीना चाहता है, सुख चाहता है और परस्पर बाँटना चाहता है। वह अविभाज्य है, जैसे सागर में बूंद भी है और स्वयं सागर भी। वह लहरों के साथ उछलती भी है और उसी में रहती भी है। जैन दृष्टि में हर वस्तु अपने स्वभाव में स्थित है। इसलिए जो हो रहा है या हो गया है, वह अपने समय के अनुसार है। महावीर के लिए 'भी' सत्य का प्रयोग रहा है। वे भावों, शब्दों या दावों से अपने को भरते नहीं हैं। महावीर पूरी तरह खालीखाली रहते हैं, इससे वे भार-विहीन, निर्विकल्प होते हैं। वे जानते हैं, खोजना भी अपने को खो देना है। प्रश्न और उत्तर उनके पास होते नहीं हैं। ___ एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों को स्वीकार करने वाले सिद्धान्त के निरूपण की पद्धति है स्याद्वाद। अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सम-विषम, वाच्यअवाच्य ये वस्तु में निश्चित रूप से पाये जाने वाले विकल्प हैं। इन विरोधी युगलों को समझकर स्याद्वाद का स्वाद चखा जा सकता है। ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की हो सकती है
नहीं है है और नहीं है कहा नहीं जा सकता है किन्तु कहा नहीं जा सकता नहीं है और कहा नहीं जा सकता
है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता। जीवन यात्रा है, अन्तहीन यात्रा। अपने अहंकार या आग्रह को लेकर जीवन को मानने की भूल 'मैं' करता है। जीवन कोई गणित नहीं है, इसी से कोई मात्रा नहीं है। जीवन का एक ऐसा विज्ञान है, जो पकड़ में आता नहीं है। जानने के साथ जाना हुआ होकर अतीत हो जाता है, मानना हो जाता है। 'मैं' अपने-आप में बहुत चतुर है। हर समय 'ही' और 'भी' का चक्र बनाकर अपने को ठगता रहता है। 'भी' का प्रयोग सहज होते हुए भी अपने अहंकार के आग्रह को नहीं छोड़ पाता है। 'ही' में सोचना नहीं पड़ता, मानना पड़ता है। अहिंसक-समाज-संरचना के लिए अनेकान्ती होना
482 :: जैनधर्म परिचय
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