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चीजों एवं प्राणियों के मूल में एक ही तत्त्व है। इसी का दूसरा पक्ष पश्चिमी प्रयोगात्म ज्ञान है। इसको विज्ञान कहते हैं, यथा - " विविधं ज्ञानं विज्ञानम्" । विरुद्धं ज्ञानं विज्ञानम् । विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानम्। अन्तर बस इतना ही है कि हमारे ज्ञान में ज्ञाता है और पश्चिम के ज्ञान में ज्ञाता नहीं है । वह पूर्ण रूप में उपकरणों पर आधारित है । अत: ज्ञान का उपयोग व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करेगा । यही कारण है कि विज्ञान के प्रयोग सही और गलत दोनों दिशाओं में हो रहे हैं। भारतीय ज्ञान विवेक एवं प्रज्ञा पर आधारित है । इसमें किसी का अहित सम्भव ही नहीं है ।
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यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि जैन धर्म-दर्शन, इस कार्य-कारण सम्बन्ध से आत्म-तत्त्व और जीवन-दर्शन की मीमांसा करता है। आइंस्टीन की सापेक्षता के सिद्धान्त के माध्यम से धारणा यह थी कि ब्रह्माण्ड की एक शुरूआत है और यह बाद में गणितज्ञों और हबल दूरबीन से भी पुष्ट किया गया, जिसने ब्रह्माण्ड के विस्तार के सम्बन्ध में, प्रकाश की परिवर्तनशीलता के बारे में बताया और यह प्रमाणित किया कि ब्रह्माण्ड का एक प्रारम्भिक बिन्दु था, जिसको सैद्धान्तिक रूप से बड़ा धमाका नाम दिया गया है। यह घटना कैसे घटित हुई, इसके विवरण के अवलोकन के बारे में कम से कम ऐसा एक संकेत विद्यमान है, जो प्रासंगिक है और इंगित करता है कि ब्रह्माण्ड का एक प्रारम्भिक बिन्दु था और यह अभी भी बढ़ रहा है ।
विज्ञान एकत्व की खोज के लक्ष्य को समर्पित है। ज्यों ही विज्ञान की यात्रा पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रुक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा । उदाहरणार्थ - रसायनशास्त्र यदि एक बार उस मूल तत्त्व का पता लगा ले, जिससे और - सब- द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा। भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्तियाँ जिसकी अभिव्यक्ति हैं, तब वह रुक जाएगा। वैसे ही, धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्वत आधार है, परमात्मा है, अन्य - सब आत्मा जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियाँ हैं । इस प्रकार अनेकता और द्वैत में से होते हुए इस परम अद्वैत की प्राप्ति होती है । धर्म इससे आगे नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य है
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474 :: जैनधर्म परिचय
वैज्ञानिकता का धार्मिक प्रागल्भ्य : सामरस्यता का अवबोध
अध्यात्म एवं विज्ञान के बीच सामरस्स का मार्ग स्थापित करने के लिए परम्परागत धर्म की इस मान्यता को छोड़ना पड़ेगा कि यह संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है । हमें विज्ञान की इस दृष्टि को स्वीकार करना होगा कि सृष्टि रचना के उपक्रम में ईश्वर के कर्तव्य की कोई भूमिका नहीं है। सृष्टि रचना - व्यापार में प्रकृति के नियमों को स्वीकार करना होगा। डार्विन के विकासवाद के आलोक में धर्म की इस सामान्य
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