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भारत भूमि पर अवतरित जैनधर्म के विचार, सृष्टिकर्ता की भूमिका को स्वीकार नहीं करते। वे सृष्टि को स्वयम्भू मानते हैं । वेदान्त के आधार पर स्रष्टा, सृष्टि और सृजन एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा की लीला है। सृष्टि स्रष्टा का ही स्वरूप है, सृजन उसकी लीला - मात्र है। इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि विश्व के अग्रणी भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने वर्ष 1968 में प्रकाशित बहुचर्चित एवं बेस्ट सेलर पुस्तक 'ए हिस्ट्री ऑफ टाइम' में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एवं संचालन में निहित जटिल, चेतन एवं सक्रिय सत्ता से दृष्टिगत इसके सृजन में ईश्वर की भूमिका को खारिज नहीं किया जा सकता। 32 वर्ष के पश्चात् अब स्टीफन हॉकिंग ने अपनी नई पुस्तक 'द ग्रांड डिजाइन' में लिखा है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी 'बिग बैंग' की घटना के लिए भौतिक विज्ञान के गुरुत्वाकर्षण नियम जिम्मेदार हैं। ईश्वर ने यह ब्रह्माण्ड नहीं रचा, बल्कि वास्तव में यह भौतिक विज्ञान के अपरिहार्य नियमों का परिणाम है। 'ए हिस्ट्री ऑफ टाइम' में संसार के बुद्धिजीवी वर्ग को चौंकाने वाले इस लेखक ने अब न्यूटन की इस अवधारणा को खारिज कर दिया है कि ब्रह्माण्ड स्वतःस्फूर्त ढंग से निर्मित होना प्रारम्भ नहीं हुआ था अपितु ईश्वर ने इसे गतिमान बनाया था । कर्म ही अन्ततः रचनाकार है। जैनधर्म के अनुसार ब्रह्माण्ड की रचना किसी व्यक्ति विशेष या सत्ता- विशेष द्वारा नहीं की गयी । यह अनन्त काल से अस्तित्व में है, जिसका न कोई प्रारम्भ और न कोई अन्त सुनिश्चित है।
लोक के शाश्वत रूप की चर्चा को विस्तार देते हुए जैन आचार्यों ने त्रिलोक की अवधारणा पर बल दिया है। इस अवधारणा के अनुसार मध्यलोक के ढाई द्वीप में मनुष्य, तिर्यंच एवं देव गण, ढाई द्वीप के अतिरिक्त असंख्यात समुद्रों में देव तथा तिर्यंच, ऊर्ध्वलोक में कल्पवासी देवगण तथा अधोलोक में देव एवं नारकी विराजते हैं।
जम्बूद्वीप के सात क्षेत्रों में से भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में षट्काल परिवर्तन के होने का विधान है। पहले से तीसरे काल तक भोगभूमि और चौथे काल से कर्मभूमि की रचना का विधान प्रतिपादित किया गया है । भोगभूमि के समापन पर, तीसरे काल में 14 कुलकर आविर्भूत होते हैं, जो क्रमशः कुल की परम्पराओं के विषय में शिक्षित करते हैं अपने सदुपदेशों के माध्यम से । कर्मभूमि के चौथे काल में 24 माता, 24 पिता, 24 तीर्थंकर, 24 कामदेव, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रति नारायण, 9 बलभद्र, 11 रुद्र, 9 नारद विशिष्ट-पुरुष होते हैं, जो युग को दिशा देते हैं । इस परम्परा में तृतीय काल के अन्त में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का आविर्भाव हुआ था । जैनधर्म का दर्शन एवं स्वरूप : विज्ञानसम्मत शुद्धोपयोगी दृष्टि
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जैनधर्म और दर्शन का उद्देश्य है - आत्मा को प्रकृति के मिश्रण से मुक्त कर, उसको
धर्म और विज्ञान :: 477
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