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की वास्तविकता है। निरूपण (कथन) अपेक्षा से जिनमें ज्ञान नहीं पाया जाता ऐसे अजीव और जिनमें ज्ञान पाया जाता है, ऐसे अन्य जीवों से जो अपने को भिन्न जानता है, वही हितकारी सम्यग्ज्ञान है।
सम्पूर्ण विश्व दो प्रकार के पदार्थों में विभक्त करने योग्य है- (एक) ज्ञाता, (दूसरा) ज्ञेय। ज्ञाता वह है, जो जानता है ज्ञाता को और ज्ञेयों को भी, परन्तु ज्ञेय वे हैं जो जानने वाले की ज्ञान स्वच्छता में जनाते हैं। ज्ञेयों को भी दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है
(1) स्वज्ञेय, (2) परज्ञेय। जो स्वयं जानता है और स्वयं अपने को जनाता है, वह स्वज्ञेय और जो मात्र ज्ञान की स्वच्छता में जानने में आते हैं, परन्तु जिनमें मेरा ज्ञान पाया नहीं जाता है, वे परज्ञेय हैं। जिस ज्ञान में स्वज्ञेय ही प्रमुख रहा, वह सम्यग्ज्ञान है। इसी सम्यग्ज्ञान को नास्ति से कहें, तो जो ज्ञान परज्ञेयों से विमुख रहा, वह सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। जो ज्ञान परज्ञेयों के प्रति उन्मुख हुआ, वह विकल्प जाल में उलझा हुआ मिथ्याज्ञान रूप रहता है। पं. दौलतराम जी ने 'छहढाला' में कहा है
आप रूप को जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है।। 3/2 अर्थात् अपने को आप रूप जानने वाली अद्भुत कला का नाम ही सम्यग्ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन-पूर्वक ही होता है।
सम्यग्दर्शन वस्तुतत्त्व के भेदविज्ञानपूर्वक होता है। ज्ञान का उपयोग सम्यग्दर्शन के लिए भी चाहिए और सम्यग्दर्शन उपरान्त आत्म स्थिरता रूप सम्यक् चारित्र के लिए भी। ___ सम्यग्दर्शन से पूर्व जो ज्ञान का उपयोग होता है, वह भेदज्ञान नाम पाता है और सम्यक् चारित्र के लिए जो आवश्यक है, वह सम्यग्ज्ञान है। इसीलिए सूत्र में सम्यग्ज्ञान को मोक्षमार्ग निरूपण में मध्य स्थान प्राप्त है- “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।"
आत्मा के अनन्त गुणों में ज्ञान का नाम सर्वप्रथम प्रमुख रूप से आता है। यही वह विशेषता है कि जिससे यह आत्मा अपने लक्षणों रूप प्रसिद्ध होता है और पर से भिन्न रूप में भी प्रसिद्ध होता है, और पर की प्रसिद्धि रूप पर-प्रकाशक-पने भी प्रसिद्ध होता है। 'बृहन्नयचक्र' में आचार्य देवसेन स्वामी ने उद्धृत किया है
णियदव्वजाणण8 इयरं कहियं जिणेहिं छददव्वं ।
तम्हा पर छद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।। 284 ।। जिनेन्द्र भगवान ने निजद्रव्य को जानने के लिए ही अन्य छह द्रव्यों का कथन
466 :: जैनधर्म परिचय
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