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दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥ 31 ।। ज्ञान और चारित्र से सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है; क्योंकि वह मोक्षमार्ग में कर्णधार कहा जाता है। __ वैदिक वाङ्मय के 'मनुःस्मृति' ग्रन्थ में भी सम्यक्त्व की महिमा इस प्रकार गायी गई है।
सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते ॥ 6/74 ॥ अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्पन्न जीव कर्मों से नहीं बँधता है और दर्शन से विहीन ही संसार कहा जाता है।
निर्णय स्वरूप में यही जानने योग्य है कि सम्यक्त्व के साथ ही ज्ञान व चारित्र की सार्थकता है। सम्यग्दर्शन से रहित ज्ञान, चारित्र व तप सब निरर्थक हैं। अत: रत्नत्रय में सबसे प्रथम सम्यग्दर्शन को ही अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। उसके बिना अनन्त संसार शान्त नहीं हो सकता। जबकि मात्र एक बार अन्तर्मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन होने से अनन्त संसार शान्त हो जाता है। सम्यक् ज्ञान
आचार्य समन्तभद्र विरचित 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ग्रन्थ में सम्यक् ज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया गया है
अन्यूनमनतिरिक्तं यथातथ्यं बिना च विपरीतात् ।
नि:सन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः।। 42 ।। जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित, अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसको आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं। 'द्रव्य संग्रह' ग्रन्थ में सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी भी लिखते हैं
संसय विमोह विब्भम विवज्जियं अप्पपरसरुवस्स।
गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।। 42।। आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थ के स्वरूप को जो संशय, विमोह और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है।
जानने वाला ज्ञान जिसका है, उसे जानो, वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, यही सम्यग्ज्ञान
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 465
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