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किन्तु इसका मतलब यह भी नहीं है कि धर्म करने से सांसारिक सुख प्राप्त नहीं होता । अरे! जिस धर्म की आराधना से पारमार्थिक मोक्ष- सुख प्राप्त होता है, उससे क्या सांसारिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता ? जिस खेती के करने से अन्न प्राप्त होता है, उससे क्या भूसा भी प्राप्त नहीं होगा ? प्राप्त तो होगा, किन्तु कोई किसान भूसे की इच्छा से खेती नहीं करता । भूसे की इच्छा किसान को नहीं, अपितु पशुओं को ही होती है, क्योंकि किसान तो यह जानता है कि अन्न की उपज पर भूसा तो स्वयमेव / अनायास ही मिल जाता है। खेती का मुख्य फल अन्न है, भूसा नहीं । उसी प्रकार धर्म पुरुषार्थ का भी मुख्य फल मोक्ष है। इस मोक्ष पुरुषार्थरत जीव के अबुद्धिपूर्वक हिंसादि पापों के तथा क्रोधादि कषायों के अभाव होने की दशा में बिना प्रयास - पुरुषार्थ के उत्कृष्ट पुण्य का संचय स्वयमेव होता रहता है । जिससे अनुकूल लगने वाले सांसारिक सुख स्वयमेव मिलते रहते हैं । ज्ञानी धर्मात्मा इस सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए धर्म नहीं करता । सांसारिक, काल्पनिक सुख की इच्छा मोक्षार्थी जीव को नहीं होती, अपितु संसारवृद्धि इच्छुक जीव को ही होती है ।
स्वस्वरूप में रमना सो चारित्र है । स्व समय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है । यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है।
भेद
इस पूज्य सम्यक् चारित्र को ही निश्चय चारित्र-व्यवहार चारित्र रूप से या अन्तरंगबहिरंग चारित्र रूप से तथा सराग - वीतराग चारित्र के भेद से दो-दो प्रकार का कहा गया है ।
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात के रूप में अवस्थागत भेद से पाँच प्रकार का भी वर्णित किया गया है।
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप पंच महाव्रत, ईर्ष्या, भाषा, ऐषणा, आदान निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन रूप पाँच समिति तथा मन-वचन-काय (इन्द्रिय-मन) की प्रवृत्ति का निग्रह रूप तीन गुप्ति। इस तरह 5+5+ 3 = 13 प्रकार का चारित्र भी आगम में निर्दिष्ट है।
उक्त भेदों में प्रथम निश्चय तथा अन्तरंग रूप चारित्र तो निज आत्माधीन स्थायी, आनन्द भोग रूप परिणाम है, यह विधि रूप या प्रवृत्ति रूप स्वकार्य है । यही करणीय है, इसके होने पर ही जीव चारित्रवन्त होता है और इसके बिना चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं, फिर वृद्धि, स्थिति और फलागम की कल्पना ही बेमानी है ।
सामायिक आदि पंचभेद युक्तता का स्वरूप निम्न प्रकार से ज्ञातव्य एवं ध्यातव्य है
(1) सामायिक - शत्रु - मित्र व बन्धुवर्ग में, सुख-दुःख में, प्रशंसा - निन्दा में, स्वर्णलोहपाषाण में, जीवन-मरण में, संयोग-वियोग में, प्रिय-अप्रिय में, राग-द्वेष के अभाव
470 :: जैनधर्म परिचय
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