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किया है, अत: मात्र उन पररूप छह द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है।
स्व-पर का भेद कराने वाले विकल्परूप व्यवहार ज्ञान के द्वारा साध्य निश्चय ज्ञान का कथन करते हैं। जिनागमोपदेश श्रवण-पठन-चिन्तन रूप व्यवहार ज्ञान से षद्रव्य आदि का परिज्ञान है और निश्चय से निजनिरंजन शुद्धात्म संवित्ति से उत्पन्न परमानन्द रूप एक लक्षण वाले सुखामृत के रसास्वाद रूप स्व-संवेदन ज्ञान है।
ज्ञान की आराधना को प्रेरित करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में कहा हैदुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मीसरोजं मदनभुजगमन्त्रं चित्तमातङ्गसिंहम् । व्यसनघनसमीरं विश्वतत्त्वैकदीपं, विषयशफरजालं ज्ञानमाराधयत्वम् ।। 7/22
हे भव्य ! तू ज्ञान का आराधन कर; क्योंकि ज्ञान पापरूपी तिमिर नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है, मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमल के समान है, कामरूपी सर्प के कीलने को मन्त्र के समान है, मनरूपी हस्ती को सिंह के समान है, आपदारूपी मेघों को उड़ाने के लिए पवन के समान है, समस्त तत्त्वों के प्रकाश के लिए दीपक के समान है तथा विषयरूपी मत्स्यों को पकड़ने के लिए जाल के समान है।
ऐसे निज ज्ञान स्वभाव की महिमा से आनन्दित रहते हुए ज्ञानरत रहना ही सम्यग्ज्ञान
सम्यग्ज्ञान के अंग
सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग निरूपित किए गये हैं1. शब्दाचार-मूल ग्रन्थ के वर्ण, पद, वाक्य को शुद्ध पढ़ना। 2. अर्थाचार-अनेकान्त स्वरूप अर्थ को ठीक-ठीक समझना। 3. उभयाचार-अर्थ को ठीक-ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढ़ना। 4. कालाचार–सामायिक के काल में न पढ़कर स्वाध्याय योग्य काल में ही
शास्त्र पढ़ना। दिग्दाह, उल्कापात, चन्द्र-सूर्य-ग्रहण, संध्याकाल आदि में मूल शास्त्र नहीं पढ़ना चाहिए। सामायिक उत्कृष्ट कार्य है। सामायिक को
छोड़कर स्वाध्याय नहीं होना चाहिए। 5. विनयाचार-द्रव्य, क्षेत्र आदि की शुद्धि के साथ मन-वचन-काय से शास्त्र
का विनय करना। 6. उपधानाचार-शास्त्र के मूल एवं अर्थ का बार-बार स्मरण करना उसे विस्मृत
नहीं होने देना, अथवा नियम-विशेष-पूर्वक पठन-पाठन करना उपधानाचार
7. बहुमानाचार-ज्ञान के उपकरण एवं गुरुजनों की विनय करना। 8. अनिह्नवाचार-जिस शास्त्र या गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है, उनका नाम न
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 467
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