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दसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं।
दसणविहीण पुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं ।। 39 ।। सम्यग्दर्शन से शुद्ध ही वास्तव में शुद्ध है, क्योंकि दर्शन शुद्ध ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। दर्शन विहीन पुरुष इष्टलाभ अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त नहीं करते।
जह णवि लहदि हु लक्खं रहियो कंडस्स वेज्झय विहीणो। तह णवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ॥ बोध पाहुड 21॥
जैसे बाण रहित बेधक धनुष के अभ्यास से रहित होता हुआ निशाने को प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्व को प्राप्त नहीं करता है।
जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं।
अहियो तह सम्मतो रिसि सावय दुविहधम्माणं।। भाव पाहुड 144।। जैसे ताराओं में चन्द्र और समस्त मृगकुलों (पशुओं) में मृगराज सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि और श्रावक दोनों धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है। आचार्य शुभचन्द्र विरचित 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ में
चरणज्ञानयोर्बीजं यमप्रशमजीवितम् ।
तपः श्रुताधिष्ठानं सद्भिः सद्दर्शनं मतम् ।। 54 ।। सत्पुरुषों ने सम्यग्दर्शन को चारित्र व ज्ञान का बीज, यम व प्रशम का जीवन, तथा तप व स्वाध्याय का आश्रय माना है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में
विद्या वृत्तस्य संभूति स्थिति वृद्धि फलोदयाः।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ 32 ॥ जैसे बीज के अभाव में वृक्ष नहीं होता, वैसे ही सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की उत्पत्ति नहीं होती। इसी से सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र से उत्कृष्ट है।
न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽ श्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥ 34 ॥ तीनों कालों और तीनों लोकों में प्राणियों को सम्यग्दर्शन के समान कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान कोई अकल्याणकारी नहीं है।
464 :: जैनधर्म परिचय
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