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4. मूढदृष्टि - सत्य-असत्य का विचार- विवेक किये बिना उन्मार्ग और उन्मार्गियों के प्रति झुकाव होना ।
5. अनुपगूहन - आत्म प्रशंसा और पर निन्दा का भाव रखते हुए धर्मात्माजनों के कादाचित्क दोषों को उजागर कर धर्ममार्ग की निन्दा करना । अस्थितिकरण - कषाय व प्रमाद आदि कारणों से धर्म से स्खलित होते हुए स्वयं या अन्य धर्मात्माजनों को धर्म मार्ग में स्थिर करने का प्रयास न करना । अवात्सल्य-साधर्मी जनों से प्रेम नहीं करना, उनसे मात्सर्य और विद्वेष रखना ।
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अप्रभावना - अपने खोटे श्रद्धान व आचरण प्रवृत्तियों से धर्म मार्ग को कलंकित करना व धर्म मार्ग के प्रचार-प्रसार में सहभागी न बनना ।
आठ मद
क्षणिक संयोगों / भौतिक उपलब्धियों में मदहोश होकर घमण्ड में चूर रहना मद कहलाता है । निमित्तों की अपेक्षा से मद आठ प्रकार के हैं
1. ज्ञानमद - थोड़ा ज्ञान पाकर अपने-आपको बड़ा ज्ञानी समझना और यह मानना कि मुझसे बड़ा ज्ञानी कोई और नहीं है, ज्ञानमद है । यह अज्ञानियों को ही होता है ।
2. पूजामद – अपनी पूजा, प्रतिष्ठा या लौकिक सम्मान के गर्व में चूर रहना पूजा मद है।
3. कुलमद - अपने पितृपक्ष की उच्चता का गर्व करना कुलमद है। 4. जातिमद - अपने मातृपक्ष की उच्चतावश अभिमानी रहना जातिमद है ।
5. बलमद - शारीरिक बल के कारण अपने को बलवान समझते हुए अन्य सभी को निर्बल समझना, तज्जन्य मद को बलमद कहते हैं ।
6. ऋद्धि / ऐश्वर्यमद - धन, वैभव, ऐश्वर्य पाकर या तपोजनित ऋद्धि के अभिमानी बने रहना ऋद्धि मद है।
7. तपमद - स्वयं को सबसे बड़ा तपस्वी समझते हुए अन्य साधकों को तुच्छ समझना तपमद है ।
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8. रूपमद - दैहिक सुन्दरता के बल पर अपने को रूपवान मानकर सुन्दरता घमण्ड में रहना रूपमद है।
462 :: जैनधर्म परिचय
तीन मूढ़ता
मूढ़ता का अर्थ है धार्मिक अन्ध विश्वास | आत्महित का विचार किए बिना ही
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