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4. सूत्र सम्यक्त्व-मुनिराजों के चरित्र निरूपक शास्त्रों के श्रवण से उत्पन्न
श्रद्धान। बीज सम्यक्त्व-बीज पदों के ज्ञान पूर्वक होने वाला असाधारण उपशमवश
श्रद्धान। 6. संक्षेप सम्यक्त्व-संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन के श्रवण से उत्पन्न तत्त्व
श्रद्धान। 7. विस्तार सम्यक्त्व-अंग-पूर्व के विषय, प्रमाण, नयादि के विस्तृत
तत्त्वविवेचनोत्पन्न सम्यक्श्रद्धान। अर्थ सम्यक्त्व-वचन विस्तार बिना केवल अर्थ ग्रहण से उत्पन्न तत्त्व श्रद्धान। अवगाढ़ सम्यक्त्व-आचारांगादि द्वादशांग के साथ अंगबाह्य श्रुत-अवगाहन
से उत्पन्न दृढ़ श्रद्धान। 10. परमावगाढ़ सम्यक्त्व-परमावधि या केवलज्ञान-दर्शन से प्रकाशित जीवादि
पदार्थ विषयक प्रकाश में जिनकी आत्मा विशुद्ध है, वे परमावगाढ़ रुचि
सम्यक्त्व युक्त हैं। उक्त विविध भाँति वर्णित अनेक भेद युक्त सम्यग्दर्शन वास्तव में आत्म विनिश्चिति रूप ही है। अस्ति रूप में तो सम्यग्दर्शन में मात्र स्वतत्त्वभूत ज्ञानानन्दमयी अनादिअनन्त उपयोगमयी, स्वनिर्मित, सहज, प्रकट आत्मतत्त्व का श्रद्धान ही है।
नास्ति रूप में कर्मों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदिरूप अनेक तरह से वर्णन किया ही गया है।
यह सम्यग्दर्शन इन अष्ट अंगों से सुशोभित होता है
(1) नि:शंकित-जिनेन्द्र कथित व्यवस्थित विश्व व्यवस्था को स्वभाव से नियत, स्थायी तथा अवस्था से क्षणिक जान कर और उसमें अपने को अनादि-निधन, ज्ञातादृष्टा रूप मानने में नि:शंकता पूर्वक इहलोक, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और अकस्मात् रूप सातों भयों से रहित अविचल आस्था रखना।
(2) नि:कांक्षित-शुभ रूप इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी कर्मफलों तथा कुधर्मों की अभिलाषा रहित निज आत्मोत्थ सुखरूपी अमृत रस में सन्तुष्टि ही नि:कांक्षितता है।
(3) निर्विचिकित्सा-समस्त राग-द्वेष आदि रूप मलिन विकल्प तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज शुद्धात्मा में स्थिति के बल से सभी वस्तु धर्मों या स्वभावों में अथवा दुर्गन्धादि विषयों में ग्लानि या जुगुप्सा नहीं करना, निन्दा नहीं करना, द्वेष नहीं करना ही निर्विचिकित्सा अंग है।
(4) अमूढदृष्टि-अन्तरंग और बहिरंग तत्त्व निर्णय के बल से मिथ्यात्व रागादि
460 :: जैनधर्म परिचय
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