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अन्ध श्रद्धालु बनकर अज्ञानपूर्ण प्रवृत्ति करना मूढ़ता है । मूढ़ता तीन प्रकार की है1. देवमूढ़ता – लौकिक फल या वरदान की अभिलाषा से राग-द्वेषादि से मलिन देवी-देवताओं में श्रद्धा, आदर, पूज्य भाव रखना ।
2. लोकमूढ़ता - ऐहिक फल की आकांक्षा एवं धर्मबुद्धि से नदी, सागर आदि स्नान करना, पर्वत से कूदना, अग्नि में प्रवेश करना, पत्थरों का ढेर लगा कर पूजना इत्यादि का पूज्यभाव ।
3. गुरुमूढ़ता — आरम्भ, परिग्रह, हिंसा से युक्त और संसार में डुबोने वाले कार्यों में लीन रागी - द्वेषी साधुओं, गुरुओं की श्रद्धा करना, सत्कार करना।
छह अनायतन
आयतन अर्थात् घर, आवास या आश्रय है । सम्यग्दर्शन के प्रकरण में धर्म के आयतन अर्थ धर्म का घर, स्थान, आवास, आश्रय है । इसके विपरीत अधर्म, मिथ्यात्व के घर आवास को अनायतन कहते हैं ।
अनायतन छह हैं—(1) कुगुरु, (2) कुदेव, (3) कुधर्म, (4) कुगुरु सेवक, (5) कुदेव सेवक, (6) कुधर्म सेवक या आराधक ।
ये छहों मिथ्यात्व के पोषक होने से हमारे चित्त की मलिनता और संसार के अभिवर्धक हैं । भय, आशा, स्नेह और लोभ के वशीभूत होकर इनकी पूजा आराधना करना और भक्ति प्रशंसा करना सम्यग्दर्शन के छह अनायतन रूप दोष हैं ।
सम्यग्दर्शन की महिमा अद्भुत है कि जिसमें जीव स्वतन्त्र, निश्चिन्त, निर्भय और निराकुल हो जाता है । सम्यग्दर्शन का माहात्म्य गाने के लिए समस्त जिनागम परम्परा ने अपनी संस्तुति एवं अभिव्यक्ति दी है । कतिपय उद्धरण दृष्टव्य हैं— आचार्य शिवकोटि मुनिराज ने 'भगवती आराधना' में
णगरस्स जह दुवारं मुहस्स चक्खू तरुस्स जह मूलं । तह जाण सुसम्मत्तं णाण चरण वीरिय तवाणं ॥ 735 ॥ दंसणभट्ट भट्टो दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिज्झति ॥ 737 ॥
अर्थात् नगर में जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है, उसी प्रकार ज्ञान, चरित्र, वीर्य और तप आराधनाओं में एक सम्यक्त्व ही प्रधान है
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दर्शन भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है, क्योंकि दर्शन भ्रष्ट को कभी निर्वाण नहीं होता । चरित्र भ्रष्ट को तो निर्वाण हो सकता है, किन्तु दर्शनभ्रष्ट को कभी नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी 'मोक्षपाहुड़' में लिखते हैं
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 463
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