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तत्त्वद्वय हेय हैं (छोड़ने योग्य हैं) । आस्रव से रहित निजाश्रित संवर- निर्जरा रूप परिणाम प्रकट करने योग्य उपादेय तथा कर्म से असम्बद्ध, स्वाधीन, स्थायी सुखरूप परिणाम मोक्ष, प्रकट करने योग्य परम उपादेय तत्त्व हैं।
तत्त्व व्यवस्था में आश्रय योग्य निजतत्त्व और बाकी सभी को परतत्त्व रूप जानकर स्व- पर भेदज्ञान रूप सम्यक्त्व लक्षण भी क्रमिक विकास रूप है।
स्व-पर भेदभाव पूर्वक मात्र निजाश्रित परिणति, स्वभाव आश्रित परिणाम, स्वाधीन परिणाम स्वरूप आत्मा का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।
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मोक्षार्थी जीव का क्रमिक प्रवर्तन सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की शरण में आकर, तत्त्व व्यवस्था से परिचित होकर, स्व को आश्रय योग्य और अन्य सभी को उदासीन होने योग्य जानकर मात्र ज्ञान स्वभावी स्वतत्त्व में सन्तुष्टि रूप होता है, तब यह जीव सम्यक्त्व रूप सुख को पाता है ।
विरले ही जीव इस सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से अलंकृत हो पाते हैं, जिसकी सामर्थ्य तो जीव मात्र में है, किन्तु कुछ तात्कालिक योग्यताएँ आवश्यक हैं, जिनमें भव्य, संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, विशुद्धतर लेश्या वाला, अन्याय - अनीति - अभक्ष्य सेवन से विरहित जागृत जीव ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का अधिकारी है।
जिन लब्धियों पूर्वक यह सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, वे पाँच हैं
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क्षयोपशम - कर्मों के क्षयोपशम से तत्त्व - विचार की शक्ति की उपलब्धता । विशुद्धि - कषायों की मन्दता जन्य स्वपुरुषार्थ के लिए परिणामों की विशुद्धता । देशना - सच्चे - देव- - शास्त्र गुरु के समागम से सम्यक् तत्त्व श्रवण- मनन
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चिन्तन द्वारा आत्मजागृति के लिए तैयार होना ।
प्रायोग्य - परिणामों की विशुद्धतावश सत्ता में रहे हुए कर्मों की स्थिति घटकर अन्तः कोड़ा - कोड़ी सागर मात्र रह जाने रूप तथा प्रतिसमय बँधने वाली कर्म प्रकृत्तियों का क्षीण हो जाना ।
करण - परिणामों की उत्तरोत्तर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि, जिसमें अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप आत्मलक्षी परिणाम कि जिसके फल में स्व संवेदन रूप सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है ।
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यह सम्यग्दर्शन ‘तन्निसर्गादधिगमाद्वा' अर्थात् निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का होता है।
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जब जीव बिना किसी प्रत्यक्ष निमित्त के स्वावलम्बी होता है, वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
परोपदेश पूर्वक प्रकट होने वाला आत्मलक्ष्मी परिणाम अधिगमज सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
इनमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनबिम्ब दर्शन, वेदनानुभव, देव ऋद्धि दर्शन, जिन
458 :: जैनधर्म परिचय
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