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सम्यग्दर्शन विभिन्न दृष्टियों से सम्यग्दर्शन के अनेक लक्षण जिनागम में बताए गये हैं। यथा___1. परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु पर तीन मूढ़ता, आठ मदों से रहित एवं आठ अंगों युक्त श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥4॥
आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार 2. तत्त्वार्थ की यथार्थ श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ 1/2 ॥
___ आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र 3. स्व-पर का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। स्वपरयोर्विभागदर्शनेन दर्शको भवति ॥ 314,315
आचार्य अमृतचन्द्र, समयसार आत्मख्याति टीका 4. आत्मा का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। विशुद्ध-ज्ञानदर्शन-स्वभावे निज-परमात्मनि यत् रुचिरूपं सम्यग्दर्शनम् ।। 38 ।।
____ आचार्य जयसेन, समयसार तात्पर्यवृत्ति टीका सम्यग्दर्शन के उक्त चारों मुख्य लक्षणों में सर्वांगीण स्वरूप विवेचन तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन में समाहित है।
सर्वज्ञता, वीतरागता एवं हितोपदेशिता लक्षण सच्चे देव, पूर्वापर विरोध रहित, आत्महितकारी जिनोपदिष्ट, वीतरागता पोषक सच्चे शास्त्र तथा विषय-कषाय और आरम्भ-परिग्रह रहित, ज्ञान-ध्यान और तप में लीन, नग्न दिगम्बर मुनिराज-सच्चे गुरु का श्रद्धान भी उनके द्वारा गृहीत, उपदिष्ट तत्त्वार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन को प्रसिद्ध करता
___ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों में से सारभूत सर्वप्रथम जीवत्व ही प्रयोजनभूत है, आश्रय योग्य आराध्य तत्त्व है, अन्य सभी तत्त्व ज्ञेय-हेय एवं प्रगट करने योग्य तत्त्व हैं। सभी तत्त्वों का जानने वाला भी जीव ही है। इसलिए आश्रय योग्य स्व-स्थायी तत्त्व परम उपादेय है। अजीव-कि जिनमें मेरा ज्ञान-दर्शन आदि चैतन्य निजत्व न पाया जाए, वे मात्र ज्ञेय हैं। (मात्र ज्ञान से जानने में आने वाले ज्ञेय हैं।) राग-द्वेष-मोहादि रूप आस्रव तथा तदनुसारी कर्मबन्ध, उदयादि रूप बन्ध ये
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 457
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