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स्वभावानुकूल इस अभिव्यक्ति में समानता होने पर भी प्रत्येक कार्य की अपनी कुछ विशेषताएँ भी होती हैं, जो अकारण नहीं मानी जा सकती हैं। पर्यायगत योग्यता को इसमें कारण माना गया है। इस प्रकार द्रव्यगत शाश्वत योग्यताओं को त्रैकालिक उपादान तथा पर्यायगत क्षणस्थायि योग्यताओं को क्षणिक उपादान की संज्ञा जैन दार्शनिकों ने दी है।
यहाँ हम कह सकते हैं कि आत्मा में प्रादुर्भूत ज्ञान, सुख-दुःख, इच्छा आदि कार्य अपने-अपने त्रैकालिक उपादान स्वरूप गुणों के परिणाम हैं। प्रत्येकक्षणवर्ती इन परिणामों की अपनी विशिष्ट-विशिष्ट पहिचान भी है, क्योंकि प्रत्येक ज्ञान, सुख-दुःख, इच्छा आदि कार्यों की अपने-अपने स्वभावानुकूल ज्ञान, सुख-दुःख, इच्छा-स्वरूप परिणति होने पर भी उन-सब की अलग-अलग सामर्थ्याभिव्यक्ति स्वरूप विशिष्टता पायी जाती है। जैसे प्रत्येक ज्ञान-परिणाम ज्ञान-रूप ही है, फिर भी प्रत्येक-ज्ञान-परिणाम में उसकी अपनी अर्हता भी है, जो उसे विशिष्ट सिद्ध कर देती है। स्पष्ट है कि वस्तु में सदैव विद्यमान रहने वाली वस्तुगत योग्यता ही त्रैकालिक उपादान है। इस योग्यता के अनुरूप ही वस्तु में अपनी पर्यायगत क्षणिक योग्यताओं का प्रस्फुटन भी प्रतिक्षण होता रहता है। वस्तुओं की यह पर्यायगत योग्यता ही क्षणिक उपादान कही जाती है। जैनदार्शनिक परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक कार्य इन दोनों योग्यताओं की परिधि में ही होता है, इनका उल्लंघन कहीं भी, कभी भी और कैसे भी सम्भव नहीं है। अतः जैनदार्शनिकों ने इन्हें उपादान कारण प्रतिपादित किया है। त्रैकालिक उपादान कारण और क्षणिक उपादान कारण के रूप में इनकी परिचिति प्रमाणित की जा सकती है। उपादान कारण और तज्जन्य कार्य का एक ही द्रव्य में पाया जाना या बने रहना अविरुद्ध प्रतिपत्ति है, क्योंकि 'मिट्टी का घड़ा' इस प्रतिपत्ति में घट रूप कार्य अपने उपादान कारण मिट्टी से ही जन्य है। यहाँ मिट्टी और घट का परस्पर तादात्म्य सम्बन्ध सुस्पष्ट है अर्थात् मिट्टी ही घट में है अथवा घट का सर्वस्व मिट्टी ही है। मिट्टी ही घटपने से परिणमित हुई है तथा घट रूप कार्य परिणाम में मिट्टी ही सर्वत्र व्याप्त है, जिससे मिट्टी का घड़ा सब तरह से मिट्टी-मय ही सिद्ध होता है। मिट्टी के बिना मिट्टी के घट का अस्तित्व कहीं भी कैसे भी ज्ञात नहीं हो सकता है। अतः उपादान कारण और तज्जन्य कार्य को एक वस्तु में जान पाना असम्भव नहीं है। कारण के अनुसार ही कार्य होते हैं अथवा सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य हुआ करते हैं, यह निष्पत्ति हमें तभी स्वीकार्य होती है, जब हम कार्य के उपादान कारण को वस्तु-गत स्वभाव के रूप में स्वीकार करें। इस स्वीकृति से ही वस्तु स्वातन्त्र्य अक्षुण्ण माना जा सकता है तथा गुण-गुणी में और कार्य-कारण में अद्वैतभाव की सिद्धि सम्भव हो सकती है।
किसी भी कार्य के होने में वस्तु के स्वभावभूत उपादान कारण को अनिवार्य एवं
298 :: जैनधर्म परिचय
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