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जिस पाषाण से बिम्ब बनाने जा रहा है, वह कैसा हो और उसके बाद जो बिम्ब बनकर तैयार होना है, उसका स्वरूप कैसा हो, उसकी माप कैसी हो, आदि का उल्लेख भी बड़ी सूक्ष्म-प्रक्रिया के साथ प्रतिष्ठा-पाठों में मिलता है। इस पूरी प्रक्रिया के पीछे भी विचार यह है कि जो जिनालय या जो जिनबिम्ब हम स्थापित करने जा रहे हैं, वह न्याय से अर्जित किये गये धन उत्तम संयमी शिल्पी' व निर्माणकर्ता तथा उत्तम शिला के आधार पर उत्तम/उत्कृष्ट आकार वाला होना चाहिए। जिनबिम्ब स्वर्ण, रत्न, मणि, चाँदी, स्फटिक एवं निर्दोष पत्थर के बनाये जाते हैं।
शिला-परीक्षण या आकर-शुद्धि-विधि
प्राचीन काल में यह क्रिया जिनबिम्ब निर्माण के पूर्व शिला के भीतरी दोषों को जानने के लिए पूर्ण विधि-विधानपूर्वक दिन में, सूर्य के प्रकाश में, अनुष्ठानपूर्वक की जाती थी। इस क्रिया में निम्न क्वाथों का प्रयोग किया जाता है
1. सप्तौषधि क्वाथ; 2. पंचफल क्वाथ; 3. छल पंच क्वाथ; 4. दिव्यौषधि मूलाष्टक क्वाथ; 5. सर्वौषधि क्वाथ; 6. सर्वौषधि; 7. अष्टगन्ध; 8. उवटन।
इन क्वाथों में विशेष औषधियों के प्रभाव से शिला-खण्ड के भीतरी दोष प्रगट हो जाते हैं। इस प्रकार निर्दोष शिला का चयन कर पूर्ण विधि-विधान से मन्त्रों से शुद्ध करके वास्तु के नियमानुसार बिम्ब-निर्माण किया जाता था। __पाषाण-प्रतिमा के दाग प्रगट करने के लिए निर्मल कांजी के साथ बेल वृक्ष की छाल का प्रयोग तथा पानी के साथ छिले हुए गरी के गोले को प्रतिमा पर रगड़ने से रेखाओं की जानकारी हो जाती थी व हो जाती है।
जिनबिम्ब प्रतिष्ठा एवं मन्दिर निर्माण में ज्योतिषीय गणनाओं का भी उल्लेख है तथा यह भी लिखा है कि ज्योतिष सम्बन्धी मुहूर्तादिक का प्रतिष्ठा में किसी भी प्रकार का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, यथा-दक्षिणायन, गुरु अस्त, शुक्र अस्त, मल मास, अशुभ योग में प्रतिष्ठा कार्य नहीं करना-कराना चाहिए। शुभ-तिथि, शुभ-लग्न, शुभवार, शुभ-नक्षत्र में ही कार्य का शुभारम्भ श्रेयस्कर होता है। जिनबिम्ब का माप
जिनबिम्ब का माप ताल से किया जाता है, जिस प्रतिमा का माप करना हो, उस प्रतिमा के 12 अंगुल एक ताल के बराबर होता है।
1. त्रिलोकसार-आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी के अनुसार 10 ताल 2. वास्तुसार-ठक्कुरफेरु के अनुसार 9 ताल 3. धवला ग्रन्थ-आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि के अनुसार देवों, मनुष्यों एवं नारकियों
का उत्सेध क्रमशः दश, नौ एवं आठ ताल के अनुसार होता है।
338 :: जैनधर्म परिचय
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