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मैं कौन हूँ?
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आचार्य महाप्रज्ञ ने ‘मैं कौन हूँ' का इस प्रकार वर्णन किया है - " आत्मा मेरा ईश्वर है। त्याग मेरी प्रार्थना है । सद्भावना मेरी भक्ति है । आत्म-नियन्त्रण मेरा धर्म है । "
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हिंसा और अहिंसा की व्याप्ति
किसी कारणवश या अकारण की गई हिंसा का एक विस्तृत क्षेत्र है और यह कई रूपों जाती है। इसमें अन्न, कपड़े, घर और दवाई - जैसी शारीरिक आवश्यकताएँ सम्मिलित हैं। गौण आवश्यकताओं और इच्छाओं में सुन्दरता, खेल और मनोरंजन, सजावट, परिवहन, सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाज, अहं, क्रोध, घृणा, नियन्त्रण, दूसरों पर प्रभुत्व आदि आती हैं।
इसी प्रकार अहिंसा का पालन- भोजन, कपड़ों, सजावट, दवाइयाँ, खेल, मनोरंजन, लिंग और जातीय एवं प्रजातीय सम्बन्धों, आपसी सम्बन्धों, व्यापार- निवेश, जीविका, आस्था सम्बन्धी परम्पराओं, वैश्विक दृष्टिकोण एवं वातावरण आदि क्षेत्रों में भी करना चाहिए।
यदि कोई अहिंसक बनने का प्रयास कर रहा है, तो उसे यह पता होना चाहिए कि कहीं अपनी निजी आवश्यकताओं की पूर्ति में वह किसी अन्य मनुष्य, पशु, पक्षी, मछली या कीड़े-मकोड़ों को पीड़ा तो नहीं पहुँचा रहा ।
अहिंसक सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्धों पर ध्यान देता है। वह देखता है कि क्या वह किसी प्रकार के भेद-भाव, जातीय दृष्टिकोण, अन्याय - पूर्ण और पक्षपातपूर्ण-नियम और अधिनियम, वर्ण-भेद, दासता और अस्पृश्यता में तो लिप्त नहीं है ।
वह अपने निवेश पर भी ध्यान देता है और विचार करता है कि क्या वह मनुष्य या पशु के शोषण, वातावरण के विनाश, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए घातक गतिविधियों द्वारा तो लाभ नहीं कमा रहा है।
396 :: जैनधर्म परिचय
संक्षेप में, अहिंसा विचार, वाणी और कर्मों में प्रेम, आदर एवं करुणा की प्राप्ति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा देती है। यह घृणा, वैमनस्य और ईर्ष्या के सभी प्रकारों का त्याग करती है। यह समता और सम-भाव से सभी का स्वागत करती है । यह अहं, क्रोध, लोभ, धोखा और पाखण्ड से मुक्त है। इससे विश्राम, हर्ष, प्रशान्ति एवं आन्तरिक शान्ति की प्राप्ति होती है।
महावीर और बुद्ध के बाद जीसस क्राइस्ट ही शान्ति और अहिंसा के सबसे बड़े अवतार
थे ।
भारतीय धर्मों और क्रिश्चियन धर्म में समानताएँ
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