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अर्थ-जो न कुटिल चिन्तन करता है, न शरीर से कुटिलता करता है। न कुटिल बोलता है और ना ही अपने दोषों को छुपाता है उसके आर्जव धर्म होता है। जो भव्य निज कृत अतिचार आदि दोषों को नहीं छुपाते हैं तथा किए हुये दोषों की निन्दा, गर्दा, प्रायश्चित्त आदि करते हैं, उनके आर्जव धर्म होता है। आर्जव धर्म का यह लक्षण सर्वज्ञ भगवान ने कहा है। इसे निकट भव्य सरल बुद्धि से धारण करते हैं।
उत्तम शौच-'शुचेर्भाव: शौचं' - पवित्रता का भाव शौच है। पवित्रता लोभकषाय का अभाव होने पर प्रकट होती है। जो परपदार्थों के प्रति नि:स्पृह है, समस्त प्राणियों के प्रति जिसका चित्त अहिंसक है और जिसने दुर्मेध अन्तरंग मल को धो डाला है, ऐसा पवित्र हृदय ही उत्तम शौच है। स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में कहा है
तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासा
मिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव॥ अर्थात् तृष्णारूपी ज्वालाएँ इस जीव को जला रही हैं। यह जीव इन्द्रियों के इष्टविषय एकत्रकर उनसे इन तृष्णारूपी ज्वालाओं को शान्त करने का प्रयत्न करता है, पर उनसे इसकी शान्ति नहीं होती है, बल्कि वृद्धि ही होती है।
धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देह सो।
शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ी संसार में॥4॥ उत्तम सत्य- 'सद्भयो हितं सत्यम्' - जो सज्जनों को हितकर हो वह सत्य है। सत्य का अत्यधिक महत्त्व हे। प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में सत्य की प्रतिष्ठा की गई है। ____ पुरुषों को प्रथम तो समस्त समस्त प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला निरन्तर मौन धारण करना हितकारी है और यदि वचन बोलना ही पड़े तो ऐसा कहना चाहिये जो सबको प्यारा हो, सत्य हो और समस्त जनों का हित करने वाला हो।
धर्म नाशे क्रियाध्वंसे, स्व सिद्धान्तार्थ विप्लवे।
अपृष्टैरपि वक्तव्यं, तत्स्वरूपप्रकाशने ॥8॥ अर्थ- जहाँ धर्म का नाश हो, जैनाचार बिगड़ता हो तथा समीचीन सिद्धान्त का लोप होता हो उस जगह समीचीन धर्म क्रिया और सिद्धान्त के प्रकाशनार्थ बिना पूछे भी विद्वानों को बोलना चाहिए क्योंकि यह सत्पुरुषों का कार्य है।
दस प्रकार का सत्य
पर्युषण पर्व :: 415
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