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रूप अनुभव करना ही सामायिक नामक आवश्यक है। जिनेन्द्र भगवान् के अनेक नामों द्वारा अनेक गुणों का कीर्तन, वह स्तवन तथा त्रिशुद्धि- आवर्तादि पूर्वक किन्हीं एक तीर्थंकर या अर्हन्तादि को मुख्य करके स्तुति करना, वह वन्दना आवश्यक है । भूतकाल में किये गए तथा आगामी काल में लगने वाले पापों व दोषों की निन्दा आदि करना वह क्रमशः प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान है । शरीर से ममत्व त्याग कर शुद्ध आत्मा की भावना करना, यह कायोत्सर्ग नामक छठा आवश्यक कार्य है । कहीं-कहीं स्वाध्याय को भी इन्हीं में शामिल किया गया है । देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थों के षट् आवश्यक क गए हैं। इन क्रियाओं को प्रतिदिन करते रहना, कभी न छोड़ना ही आवश्यका परिहाणि भावना है।
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15. मार्गप्रभावना भावना - कल्याण के मार्ग को ही जिनागम में मार्ग कहा गया है, वह मार्ग सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्र की एकता रूप मोक्षमार्ग ही है, ऐसे उत्कृष्ट मोक्षमार्ग की प्रभावना करना, उसके प्रभाव को प्रकट करना ही मार्गप्रभावना नामक पन्द्रहवीं भावना है ।
अनादि से यह आत्मा मिथ्यात्व - रागादि से सहित है तथा दुःख भोग रहा है, किन्तु अब मनुष्य जन्म, इन्द्रियों की पूर्णता, मति - श्रुतज्ञान की शक्ति, परमागम की शरण, साधर्मी का समागम आदि सभी योग्य वस्तुएँ मिली हैं तो अब रागादि का नाश करके मुक्तावस्था को प्राप्त करना, यही सच्ची मार्गप्रभावना है। प्रथम तो यही आत्म-प्रभावना ही करने योग्य है । पश्चात् तप, ज्ञान, पूजा आदि से अन्य जनों को प्रभावित करना । जैनधर्म का अतिशय प्रकट करना, ऐसे धार्मिक कृत्य जिनसे जिनधर्म का माहात्म्य प्रकट हो, वह परात्म प्रभावना कहलाती है । जिन भक्ति, शास्त्र व्याख्यान करना, कराना, दान देना, जिनमन्दिर बनवाना, प्रतिष्ठादि करवाना, ये सभी परात्म प्रभावना के कार्य हैं जो जगत् जनों को प्रभावित करने वाले होते हैं ।
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शील की दृढ़ता, परिग्रहपरिमाणता आदि से आत्मप्रभावना भी होती है तथा मार्ग प्रभावना भी । अतः तन-मन-धन से मार्ग की प्रभावना करने में उद्यत होना, यही मार्गप्रभावना भावना का सार है 1
16. प्रवचनवत्सलत्व भावना - देव - शास्त्र - गुरु तथा इनके मानने वालों को ' प्रवचन' संज्ञा दी गई है, इस प्रकार देव - गुरु-धर्म तथा इनके मानने वालों के प्रति प्रीतिभाव रखना, वात्सल्यभाव रखना सो प्रवचन - वत्सलत्व भावना कही गई है।
समस्त विषयों की आशा से रहित, निराम्भी, अपरिग्रही, ज्ञान व ध्यान में ही सदा लीन रहने वाले ऐसे साधु, व्रतों के धारक, पापभीरु, न्यायमार्गी, मन्दकषायी व सन्तोषी, ऐसे श्रावक-श्राविकाओं के गुणों में अनुराग धारण करना वात्सल्य है । स्त्रीपर्याय में व्रतों की उत्कृष्ट मर्यादा का पालन करने वाली आर्यिका आदि के गुणों में अनुराग वात्सल्य है । अनादि से यह जीव स्त्री- पुत्र - कुटुम्बादि में तो राग करता आ रहा है, धनिक हुआ तो
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 445
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