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जल आदि का क्रमिक त्याग भाव लाकर हृदय में ऐसी दृढ़ता बनाए रखकर, मेरा लिया हुआ कोई भी नियम न टूटे ऐसी जागरुकता का पुरुषार्थ बना रहे ऐसी-भावना निरन्तर भाने योग्य
शरीर के रुग्ण स्वभाव अनुसार दैहिक वेदनाओं के प्रसंग में मेरा चित्त आकुलित, कषायित न हो, जिससे मैं दुर्ध्यान (आर्त-रौद्रध्यान) से बचा रहूँ। निरन्तर अर्हन्त-सिद्धसाधु के स्वरूप व उनके प्रति विनयावनत रहते हुए, मैं दर्शन-ज्ञान-चारित्र व तप आराधनारत रह आत्मस्वरूप में मग्नता, आनन्दमयता ही विचारता रहूँ।
निरन्तर साधर्मीजनों का मुझे संग मिलता रहे, वे मुझे निरन्तर धर्मचर्चा से लाभान्वित करते रहें, मेरा अन्तर पौरुष बढ़ाते रहें व मुझे सावधान रखें कि जिससे मैं विषय-कषायों की दलदल में गाफिल न हो जाऊँ।
मेरा हृदय जीवन की अभिलाषा तथा मरण की चाह रूपी रोग से बचा रहे, मित्रजनपरिवारजन से भी मेरा राग टूटता जाए। पूर्व में भोगे हुए भोग भी मुझे याद न आयें तथा आगामी भव में भी इन्द्रपद-राजपद आदि की चाह न जगे।
इस तरह सर्व संयोग-वियोगों में समदर्शी रहकर स्वस्वभाव के स्मरण-ज्ञान, श्रद्धान व रमणतापूर्वक इस देह के वियोग प्रसंग को मैं सहज समता के भावों में रह, निडर होकर ज्ञाता दृष्टापने रूप अपने को अनुभव करता रहूँ।
समाधि की प्राप्ति के लिए समाधि की भावना बीजभूत उपक्रम है।
प्रत्येक साधर्मी की यही भावना रहती है या रहनी चाहिए- मैं निरन्तर अर्हन्त-सिद्धसाधु तथा उनके द्वारा प्रणीत जिनधर्म की शरण में रहकर ज्ञानरत रह देह रहित होने का पुरुषार्थ जागृत करता रहूँ।
मोक्षमार्ग
गागर में सागर भर देने वाली हिन्दी भाषा की कविवर पं. दौलतराम जी कृत 'छहढाला' में मोक्ष व मोक्षमार्ग का स्वरूप इस प्रकार उद्घाटित किया गया है
आतम कौ हित है सुख सो सुख आकुलता बिन कहिए। आकुलता शिव मांहि न तारौं शिव-मग लाग्यौ चहिए। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध विचारो।
जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारन सो व्यवहारो॥3/1॥ अर्थात् जगज्जंजाल में दुःखपूर्वक भ्रमण करते हुए जीव को दुःख से बचने तथा सुखी होने का स्वरूप तथा उपाय इतना ही है कि
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 453
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