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ऐसे पुण्य के उदय से प्राप्त विषय-भोग साधन भवरोग बढ़ाने वाले होने से इस जगत् में जीव के दुश्मन ही हैं, क्योंकि ये भोग भोगते समय ही मधुर लगते हैं, फलकाल में तो ये दुःख रूप ही होते हैं । वज्र, अग्नि, विष एवं विषधर सर्प इस लोक में दुःखदायी प्रसिद्ध हैं, किन्तु ये भोग तो इनसे भी अधिक दुःखदायी हैं। धर्मरूपी रत्न के तो ये चोर हैं, चपलता लिये हुए हैं और दुर्गति के मार्ग में धकेलने वाले हैं। ___ मोह के उदय में ही अज्ञानी जीव को ये भोग भले-से लगते हैं। जैसे कोई व्यक्ति धतूरा खाकर सभी सामग्री को कंचन रूप मानने लग जाता है। इन भोगों का स्वरूप तो ऐसा है कि जैसे-जैसे इस जीव को मनोहारी भागों की प्राप्ति होती है, तैसे-तैसे इनकी
और अधिक प्राप्ति की अभिलाषा बढ़ती ही जाती है, ये तो तृष्णा रूपी नागिन के डसे हुए ही हैं। ___मैंने अब तक अनेक जन्मों में, अनेकों बार बड़े-से-बड़े राजे-महाराजे के पद भी पाये हैं, और निरन्तर बहुतेरे भोग भोगे हैं, फिर भी मेरी मनोभिलाषाएँ जरा-सी भी पूरी नहीं हो पायीं हैं। राज्याधिकार-राज्य सम्पदाएँ और समाज ये सब तो महान पाप के कारण हैं और निरन्तर बैरभाव की वृद्धि कराने वाले हैं। तथा यह पुण्योदय में प्राप्त लक्ष्मी भी वेश्या के समान चंचला है, इसका तो कोई एक पति/स्वामी नहीं है, जिस की जेब में हो वही उसका मालिक बन बैठता है, मान लेता है।
वास्तव में, मोह ही हमारा महाशत्रु है, जो इस जीव को संसार-भ्रमण के संकट में फँसा लेता है और ये शरीर रूपी कारागृह (जेल), स्त्री रूपी बेडी और परिजन लोग इस जेलखाने के रखवाले हैं। ये सब तो मोह के प्रतिनिधि हैं। इनका कार्य मुझे मोहजाल में फँसाये रखना है। मेरे हितकारी तो मात्र सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप-ये ही हैं, ये ही सार स्वरूप हैं, और बाकी सब तो असार, अप्रयोजनभूत, बेमतलब के हैं। यह विचार कर विरक्ति भाव ही भाने योग्य है।
बड़े-बड़े महापुरुष चक्रवर्ती आदि ने भी ऐसा विचार कर उनके पास उपलब्ध पुण्योदय स्वरूप रानियाँ ,करोड़ों घोड़े, लाखों हाथी, पैदल सेना, रत्न आदि सभी को जीर्ण तिनके के समान जानकर, वैराग्य अंगीकार कर, योग्य पुत्रादि को उत्तराधिकार सौंपकर, मुनिराजश्री के समक्ष उनके चरणों में विनती करके नग्न दिगम्बर मुनि- मुद्रा धरकर, पंचमहाव्रत पाल, सामायिक आदि चारित्र में स्वरूपस्थ हो अपने इस प्राप्त नरभव को केवलज्ञानादि प्राप्तकर सफल दिया है। __वे जीव धन्य हैं, सुकृतार्थ हैं, जिन्होंने ऐसी आत्मानुरक्ति में विषयविरक्ति अंगीकार की है।
धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज धारी।
ऐसी सम्पति छोड़ बसे वन, तिन पद धोक हमारी॥ पं. दौलतराम जी ने 'छहढाला' में भी कहा है
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 451
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