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आत्मा का हित सुख स्वरूप है और वह सुख आकुलता से रहित ही होता है। आकुलता मोक्ष में नहीं है अर्थात् मोक्ष निराकुल स्वरूप है। इसलिए सुखी होने के लिए मोक्षमार्ग में लग जाना चाहिए। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग है। वह भी निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। जो सत्यार्थ, यथार्थ रूप है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है और जो इस यथार्थ मोक्षमार्ग की प्राप्ति का कारण है, उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं।
अभिप्राय यह है कि मोक्ष मात्र स्थान विशेष या घटना-विशेष नहीं है। मोक्ष जीव की वह परिणति-अवस्था है, जिसमें जीव निराकुल, स्वाधीन, स्थायी सुख का वेदन करता रहता है और ऐसा सन्तुष्ट रहता है कि वहाँ से पुनरागमन सम्बन्धी विकल्प को भी फुरसत नहीं मिलती। दुःखजनक सम्बन्धों का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता, जन्मजरा-मरण जैसी सार्वकालिक व्याधियों से जिसका कोई वास्ता नहीं रहा, राग-द्वेषमोह जैसी सर्वांगीण सर्वथा दु:खमयी वृत्तियाँ जहाँ जन्म ही नहीं ले पाती, बन्धनस्वरूप व बन्धनकारी कर्मों का अभाव हो चुका है। मात्र स्व-स्वरूप साम्राज्य तथा उसके ज्ञान, रमणता द्वारा ऐकान्तिक सुख का भोग ही होता रहता है, ऐसी परम तृप्त दशा का नाम ही मोक्ष है। ___जब तक इस जीव को मोक्ष सुखस्वरूप नहीं भासे, तब तक जीव उसकी प्राप्ति का प्रयास भी प्रारम्भ नहीं करता है और तब तक दुःखकारणों में ही सुख प्राप्ति की आकांक्षा रखते हुए निरन्तर दुःखित होता रहता है।
समस्या यह है कि यह जगज्जीव विषय-भोग जनित पराधीन दुःखों में कमी को सुख रूप में कल्पता आया है। इस अज्ञानी जीव को स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण और मन सम्बन्धी विषयों की अनुकूलता में ही सुखपने की बुद्धि है, और अधिक अनुकूलता में ही सच्चे सुख की अभिलाषा है। स्वर्ग सम्बन्धी वैभव और अनुकूलता को अधिक सुखमयी गिनता है। इस कारण मोक्षसुख को स्वर्गसुख से अनन्तगुणा सुखमयी सुनकर तत्सम्बन्धी अधिक अनुकूलता को अनन्तगुणा करके मोक्ष सुख रूप कल्पना किया करता है, परन्तु इस स्वर्गलोक के इन्द्रिय जन्य, कर्मोदय की पराधीनता लिए हुये और विनाशीकता लक्षण काल्पनिक सुख से अनन्तगुणा तो अनन्त दुःख ही होना चाहिए। मोक्ष में ऐसा सुख बिल्कुल नहीं है। मोक्ष में तो अतीन्द्रिय, स्वावलम्बन पूर्वक, अनुपम ज्ञानानन्दमयी स्वसत्ता से उत्पन्न विच्छेदरहित, अविनाशी सुख ही है। यह सुख ही यथार्थ सुख है।
मुक्ति (मोक्ष) का मार्ग ऐसा रमणीय विषय है, जो सुनने, विचारने, समझने वाले को अत्यन्त प्रिय होता है और होना भी चाहिए। इसीलिए सर्वज्ञभगवन्तों की दिव्य देशना से लेकर वीतरागता के आराधक सन्तों की लेखनी भी मात्र इसी मुक्ति-मार्ग के सम्बन्ध में ही प्रस्फुटित हुई है। अन्य कोई विषय स्वाधीन, स्थायी सुखाभिलाषी
454 :: जैनधर्म परिचय
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