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मात्र नामभेद है, अर्थभेद नहीं है। यदि मात्र बाह्य-भक्ति-पूजा में लगे रहे व शुद्धोपयोग रूप प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ तो वह तुष कूटने के समान निष्फल ही है। अतः यथार्थ प्रयोजन पूर्वक स्व को पवित्र करने वाली अर्हन्त भक्ति भावना कही गयी है।
11. आचार्यभक्ति भावना-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप इन पाँच उत्कृष्ट आचारों का स्वयं आचरण करने वाले तथा संघस्थ अन्य साधुओं को आचरण करवाने वाले आचार्य कहलाते हैं। अनशनादि 12 तपों में उद्यत, दशलक्षण धर्म रूप परिणति युक्त, त्रयगुप्ति सहित, निर्ग्रन्थ मार्ग में गमन करने में तत्पर आचार्य योग्य जानकर शिष्य को दीक्षा आदि देते हैं, प्रायश्चित विधि से उनके दोषों को दूर करते हैं, धर्म के लोभी भव्य जीवों को हित का उपदेशादि देते हैं । ऐसे आचार्य के रूप को जानकर उनके गुणों में अनुराग करना, सो संसार परिभ्रमण की नाशक आचार्यभक्ति है। ____ आचार्य के 36 गुण कहे गए किन्तु वे तो सभी साधुओं में पाये जाते हैं तो आचार्य का वैशिष्ट्य क्या है? सो कहते हैं कि जो मुनिसंघ के शासक, धर्म के नायक, लोक व्यवहार व परमार्थ के ज्ञाता, बुद्धि व तप की प्रबलता के धारक, उग्र तप करने में सक्षम, वैराग्योत्पादक अतिशय वचन युक्त होते हैं, वे आचार्य हैं। गणधर, जो द्वादशांग रूप जिनवाणी का गठन करते हैं, वे भी आचार्य ही होते हैं। __संघ में राजा के समान व्यवस्था आदि करने हेतु आचार्य के 8 गुण गिनाए गये हैं अर्थात् आचार्य स्वयं आचरण करने व अन्य शिष्यों को आचरण करवाने से आचारवान् हैं। स्वयं व शिष्य को विचलित न होने देने से व आधारभूत होने से आधारवान् हैं, प्रायश्चित आदि सूत्र के ज्ञाता होने से व्यवहारवान्, आपत्ति आने पर संघ की सेवा करने से प्रकर्ता और मुनि के विचलित होने पर रत्नत्रय की रक्षा कराने व धर्म में स्थित कराने के कारण आपायोपायविदर्शी हैं। मुनि को अपने दोषों की ठीक आलोचना न करने पर समझाने के कारण अवपीड़क, एक मुनि के दोष अन्य मुनि से न कहने के कारण अपरिश्रावी तथा शिष्य को विघ्नादि से बचाकर संसार से पार लगाने वाले होने से निर्यापक ऐसे आचार्य होते हैं, उनकी भक्ति करना, वह आचार्य भक्ति भावना है।
12. बहुश्रुतभक्ति भावना-बारहवीं भावना बहुश्रुतभक्ति नामक भावना है जिसमें सभी उपाध्यायों की भक्ति करने का वर्णन प्राप्त होता है। जो अंग-पूर्वादि रूप द्वादशांग जिनवाणी के ज्ञाता हैं, चारों अनुयोगों के पारगामी हैं, जो निरन्तर स्वयं परमागम को पढ़ते हैं तथा अन्य सभी से अधिक ज्ञानी हैं, ऐसे उपाध्याय बहुश्रुत कहलाते हैं। संघस्थ मुनियों को पढ़ाने के कारण वे ही पाठक कहलाते हैं। स्याद्वादरूप परम विद्या के धारक, ऐसे बहुश्रुती उनकी भक्ति करना, वही बहुश्रुतभक्ति भावना है।
"उपेत्याधीयते यस्मात् सः उपाध्यायः" इस निरुक्ति के अनुसार जिसके पास बैठकर पढ़ा जाए, वे गुरु ही उपाध्याय कहलाते हैं। वे आचारांग आदि 11 अंग तथा उत्पादादि
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 443
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