________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
अर्थ होता है - हटाना । अर्थात् दुःखों को दूर करना । पूर्व में साधु-समाधि भावना में साधु का जो स्वरूप वर्णित है, ऐसे साधुओं की वैयावृत्ति करना चाहिए। अन्य शब्दों में कहें तो कोढ़, ज्वर, श्वासादि की कोई बीमारी या बाधा आदि आ जाने पर किसी साधु की श्रावक द्वारा अथवा साथी साधु द्वारा तथा श्रावक की अन्य श्रावक द्वारा निर्दोष आहार - औषधि आदि देकर उनकी सेवा - सुश्रूषा करना, विनय-आदर करना, उनका दुःख दूर करने का प्रयत्न करना, सो वैयावृत्य कहलाता है तथा जो आचार्यादि गुरु-शिष्य को श्रुत के अंग पढ़ाते हैं, व्रतादि की शुद्धि का उपदेश देते हैं, वह शिष्य का वैयावृत्य है, इसी प्रकार शिष्य का गुरु की आज्ञा में प्रवर्तते हुए उनकी सेवा करना वह गुरु के प्रति वैयावृत्य है ।
वास्तव में, अपने चैतन्यस्वरूप आत्मा को राग-द्वेषादि दोषों में लिप्त नहीं होने देना, यह अपने आत्मा का वैयावृत्य है । अपने आत्मा को भगवान के द्वारा कथित परमागम में लगा देना, दशलक्षण रूप धर्म में लीन होना ही असली वैयावृत्य है। भील- म्लेच्छादि द्वारा किये गए उपद्रव से मुनिराज का जो परिणाम विचलित हुआ, उसे सिद्धान्त का आधार लेकर स्थितिकरण करना, यही वैयावृत्य भावना है जो कि रत्नत्रय की रक्षा का कारण होने से जगत् में अति उत्तम कही गई है।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
10. अर्हद्भक्ति भावना - पूजार्थक अर्ह धातु से अर्हत् शब्द बना है, जिसके अनुसार जो चार घातिया कर्मों के सर्वथा नाश कर देने के कारण पूजनीय हैं, वे अर्हन्त है, ऐसा अर्थ प्राप्त होता है। तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में रहने वाले व द्वादशांग वाणी के प्रवर्तक अर्हन्त भगवान, उनके गुणों में अनुराग करना सो अर्हद्भक्ति भावना है।
अर्हन्त भगवान् राग- - द्वेष - मोहादि के नाश से वीतराग, ज्ञान का समस्त आवरण दूर हो जाने पर लोकालोक को जानने वाले होने से सर्वज्ञ तथा यथार्थ वक्ता होने के कारण हितोपदेशी हैं। हितोपदेश के कर्तापन के कारण ही अर्हन्त भगवान् को सिद्धों से भी पूर्व स्मरण किया जाता है। जिनागम में अर्हन्त भगवान् के 46 गुण कहे गये हैं, जिनमें अनन्त चतुष्टय रूप चार गुण ही आत्माश्रित हैं, शेष बयालीस शरीराश्रित तथा विशेषकर तीर्थंकर अर्हन्तों के कहे गए हैं । अर्हन्त भगवान् या आप्त 18 दोषों से रहित होते है । आचार्य समन्तभद्र 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ग्रन्थ में लिखते हैं
—
क्षुत्पिपासाजरातंक जन्मान्तकभयस्मयाः ।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ॥
442 :: जैनधर्म परिचय
अर्हन्त भगवान् पंच कल्याणधारी, सामान्यकेवली आदि सात प्रकार के कहे गए हैं, वस्तुतः रागादिक वैभाविक परिणतियों के नाश रूप स्वभाव की प्रकटता तो सभी में समान ही है, मात्र किंचित् भेद है । ऐसा रूप समझकर अर्हन्त भक्ति में चित्त लगाना चाहिए, क्योंकि यह संसारसमुद्र से तारने वाली है। यथार्थ अर्हन्त भक्ति तो अर्हन्त भगवान् के समान निज स्वरूप को देखकर स्वयं अर्हन्त बन जाना ही है तथा अर्हन्त भक्ति व सम्यग्दर्शन में
For Private And Personal Use Only