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वह धर्म कहा गया है, सो यह धर्म अत्यन्त मिष्ट फल वाला कहा है। तीर्थंकर पदवी, नारायण, चक्रवर्ती आदि सभी पद धर्म के फल से ही मिलते हैं। सांसारिक अनुकूलताजैसे प्रचुर सम्पदा की प्राप्ति, लोक में मान्यता, बुद्धि की उज्ज्वलता, निरोगता, दीर्घायु आदि सब धर्म धारण करने के फल में ही मिलते हैं। कल्पवृक्ष हो या चिन्तामणि रत्न सभी धर्मात्मा के चरणों की धूलि होते हैं। ऐसे धर्म को त्रैलोक्य में उत्कृष्ट जानना, यही संवेग भावना
है।
6. शक्तितस्त्याग भावना-यह षष्ठ भावना है, जिसके अन्तर्गत त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। अपनी शक्ति के अनुसार पदार्थों को छोड़ना, देना ही त्याग कहलाता है। बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह से ममता के छोड़ने से त्याग धर्म होता है। प्रथम तो अन्तरंग परिग्रह का त्याग होता है, पश्चात् बाह्य परिग्रह को धीरे-धीरे सीमित करते हुए त्याग किया जाता है। मिथ्यात्व, कषायें व नोकषायें, ये सभी अन्तरंग परिग्रह हैं। शरीरादि परद्रव्यों में आत्मबुद्धि करना मिथ्यात्व है, सर्वप्रथम इसी का त्याग करना, क्योंकि इस मिथ्यात्व के समान इस लोक में इस जीव का अन्य कोई शत्रु नहीं है।
अन्तरंग परिग्रह के त्याग के पश्चात् धन-धान्यादि का त्याग होता है। दोनों प्रकार के परिग्रह के एकदेश त्याग से श्रावकदशा तथा सकल त्याग से मुनिदशा होती है। परिग्रह के त्याग के साथ-साथ विषय-कषायों का भी त्याग होता है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों को, उनमें लोलुपता को जीतने से त्याग धर्म होता है तथा उत्तम, मध्यम व जघन्य- ऐसे तीन प्रकार के पात्रों को भक्तियुक्त होकर आहार-औषधि आदि का दान देना भी समस्त त्याग धर्म के अन्तर्गत आता है। त्याग के बिना गृहस्थ का गृह श्मशान के समान है तथा गृहस्थी का स्वामी पुरुष मृतक के समान है और स्त्री-पुत्रादि गिद्धपक्षी के समान इसके धनरूपी माँस को नोंच-नोंचकर खाने वाले हैं, अतः अपनी शक्ति अनुसार त्याग करने की प्रेरणा इस भावना में दी गई है। ___7. शक्तितस्तप भावना-कर्मों के नाश करने के लिए अथवा इच्छा का निरोध करने के लिए अथवा मन और इन्द्रियों को वश में रखने के लिए जो तपा जाता है, उसे तप कहा जाता है और अपनी शक्ति के अनुसार तप करने को शक्तितस्तप भावना कहा जाता है। ___यह शरीर तो अनित्य-अस्थिर है, कृतघ्न के समान है, अतः इसे पुष्ट करना योग्य नहीं, किन्तु कृश करने योग्य है, तभी यह गुणरत्नों के संचय का कारण बनता है। अतः इसे सेवक के समान ही भोजनादि देकर कायक्लेशादि तप करना योग्य है, श्रेष्ठ है। तप को अनेकानेक शास्त्रों में कर्मपर्वत को भेदने वाले वज्र की उपाधि दी गई है। तप रूपी सुभट की सहायता के बिना ये काम-क्रोधादि लुटेरे अपनी श्रद्धा-ज्ञानादि धन को लूट लेते हैं, अतः तप को धारण अवश्य करना चाहिए।
सबसे प्रधान तप तो दिगम्बरपना है, जो घर-कुटुम्बादि की ममता से रहित, परिषहों
440 :: जैनधर्म परिचय
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