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परेशानियों का समागम मिलता है। ये सभी समागम जीव को संयोग ही हैं, क्षणिक हैं, जीव के अपने व स्वभाव नहीं हैं, स्थायी नहीं हैं। पाप के उदय में मिलने वाले संयोगवियोग तो सुखस्वरूप-सुखदायी हैं ही नहीं, पुण्योदय में मिलने वाले संयोग-वियोग भी सुखस्वरूप, सुखदायी तो नहीं, किन्तु सुखदायीपने का भ्रम उत्पन्न करते हैं। हैं तो ये भी यथार्थतया दुःखस्वरूप ही। ऐसा जानकर विवेकी जीव इन पुण्य परिणामों के होने पर भी इन्हें सुखस्वरूप, सुखकारण नहीं मानते हैं अपितु निजाश्रित धर्म परिणाम को ही सुखस्वरूप मानते हैं।
ज्ञानी जीव को सहज ही अनासक्ति पूर्वक हुए पुण्य भावों के फल में उत्कृष्ट समागम प्राप्त होते हैं। नारायण, बलभद्र, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि जैसे पुण्योदय ज्ञानियों को ही होते हैं और वे ज्ञानी इन पुण्योदयों को भोगते हुए भी दिखाई देते हैं। इस भोग प्रक्रिया में महाभाग्य से मिला अपूर्व पुरुषार्थयोग्य समय, क्षयोपशमज्ञान, विशुद्धि आदि ऐसे व्यतीत होते जाते हैं कि जिनमें समयादि का व्यतीत होना महसूस ही नहीं होता ।
समागमों की प्राप्ति तो महाभाग्य से होती है, किन्तु उन समागमों में स्वयं सत्कार्य में जुड़ना, अपने उपयोग को स्वरूप अनुरक्ति व विषय विरक्ति में लगाना पुरुषार्थ है।
ऐसा महापुरुषार्थी सद्गुरु के समागम में उनके प्रति अत्यन्त विनयावनत हो, नम्रभाव से उनको प्रदक्षिणा देकर, स्तुति-पूजा करके उनका समीपस्थ हो, उन धर्म-शिरोमणि से उपदिष्ट वस्तु सत् का स्थायी स्वरूप तथा संयोग व भावों का क्षणिक स्वरूप सुनकर इन संयोगस्वरूप राजपद, स्त्री, पुत्रादि के प्रति की रसानुभूति से विरक्त हो जाता है। उस उपदेश से अपनी अनादिकालीन बुद्धि भ्रमस्वरूप भासने लगती है तथा संसार, शरीर व भोगों का स्वरूप विचारकर उनसे चित्त उचटने लगता है और उत्कृष्ट धर्मस्वरूप अपने निजतत्त्व में प्रीति जुड़ने लगती है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है
यथा-यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा-तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि ॥37॥ यथा-यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि।
तथा-तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ॥38॥ इष्टोपदेश अर्थात् भेदज्ञान के बल से जैसे-जैसे उत्तम आत्म तत्त्व की संवित्ति (ज्ञान) होने लगती है, तैसे-तैसे सहज ही प्राप्त रमणीय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते हैं। और जैसे-जैसे सहज प्राप्त इन्द्रिय विषयों से रुचि घटती जाती है, तैसे-तैसे स्वसंवित्ति रूप उत्तम विशुद्धता बढ़ती जाती है।
जन्म-मरण रूप संसार महावन में भ्रमण का तो कोई अन्त नहीं है। जीव जन्म-जरामरण आदि में निरन्तर दुःखित होते हुए पीड़ित ही रहता है। कभी नरक की स्थिति में निरन्तर छेदन-भेदन की पीड़ा भोगता है, तो कभी पशु पर्याय में बध-बन्धन का दुःख
448 :: जैनधर्म परिचय
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