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प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है।
1. ध्यान करने वाले योगी को ध्याता कहते हैं। 2. ध्याता द्वारा जो कार्य सम्पन्न हो, उसे ध्यान कहते हैं। ध्याता द्वारा की गयी
क्रिया ध्यान है। 3. ध्याता पुरुष द्वारा जिसका ध्यान किया जाए, उसे ध्येय कहते हैं। 4. ध्याता पुरुष द्वारा ध्याने योग्य का ध्यान करने पर जो अर्जित किया जाए __ वह ध्यानफल है। ध्यान से जो प्राप्त हो, वह ध्यानफल है। अब प्रशस्त और अप्रशस्तपना विचारणीय है
जो ध्यान की क्रिया स्वाधीन, अविनाशी, ध्याने योग्य निज आत्मतत्त्व के प्रति समर्पित हो एवं निजात्मा के आराधकों के प्रति समर्पित हो, वह तो प्रशस्त-ध्यान है
और इनके अतिरिक्त किसी के प्रति भी ध्यानमग्नता अप्रशस्त-ध्यान है। प्रशस्त ध्यान धर्म्यरूप तथा शुक्लरूप होता है तथा अप्रशस्त ध्यान आर्त और रौद्र रूप होता है। धर्म्य तथा शुक्ल ध्यान सुखरूप तथा सुख के कारण हैं तथा आर्त और रौद्र ध्यान दु:ख रूप तथा दुःख के कारण हैं।
ध्यान
रौद्रध्यान -
-
--धर्म्यध्यान
आर्तध्यान
शुक्लध्यान इष्टवियोगज अनिष्टसंयोगज पीड़ाचिन्तन निदान | पृथक्त्व एकत्व सूक्ष्म व्युपरतक्रिया
|| वितर्क वितर्क क्रिया निवृत्ति वीचार अवीचार प्रतिपाति
हिंसानन्दी मृषानन्दी चौर्यानन्दी परिग्रहानन्दी
आज्ञाविचय अपायविचय विपाकविचय संस्थानविचय एवं अन्य प्रकार से धर्म्यध्यान
पिंडस्थ
पदस्थ
रूपस्थ
रूपातीत
1. आर्तध्यान-आर्त का अर्थ है पीड़ा या दु:ख। जिन परिणामों में जीव निरन्तर पीडित रहे, विकल रहे, दुःखी रहे। ऐसे अनादि संस्कार-वश होने वाले अशुभ परिणाम ही आर्तध्यान रूप होते हैं। व्याकुलता, छटपटाहट, अधीरता ये आर्तध्यान की ही अभिव्यक्तियाँ हैं।
आर्तध्यान के चार भेद हैं-अनिष्ट संयोगज, इष्टवियोगज, पीड़ा चिन्तनज एवं निदानज।
422 :: जैनधर्म परिचय
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