________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
क्षेत्रं गृहं धनं धान्यं, द्विपदं च चतुष्टपदम्।
आसनं शयनं वस्त्रं भाण्डं स्याद् गृहमेधिनां ॥ 4 ॥ दशधर्म स्कन्ध, पृ. 176 अर्थ-खेल, मकान, सोना चाँदी, धान्य (अनाज), दासी-दास, गाय-बैल आदि आसन (बर्तन), शयन (वस्त्र) पाप और आरम्भ की हानि के लिए गृहस्थों को इन दस प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करना चाहिए।
उत्तम ब्रह्मचर्य- 'ब्रह्मणि चरणं ब्रह्मचर्यं' - अर्थात् आत्मा में विचरण करना, लीन होना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा धर्म है। ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावना
स्त्रीरूप-मुख-शृंगार-विलासनिरीक्षणम्। पूर्वानुभूत सद भोग-रत्यादि स्मरणेज्झनम् ॥ 21 ॥ दशधर्म स्कन्ध, पृ. 190
अर्थ- स्त्रियों में राग बढ़ाने वाला रूप, मुख, शृंगार, विलास आदि के निरीक्षण का पूर्व अनुभूत भोगों एवं रति के स्मरण का त्याग करना, ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं।
स्त्रियों के सम्पर्क में रहना, गरिष्ट भोजन करना, सुगन्धित तेल मालादि पहनना, स्त्रियों के समीप सोना-बैठना, गाने वालों के समीप रहना, धन का संग्रह करना, कुशील स्त्री पुरुषों की संगति करना, राजाओं की सेवा करना, रात्रि में घूमना ये दश ब्रह्मचर्य के विनाशक हैं। - दशधर्म स्कन्ध, पृ. 191
शील-वाड नौ राख, ब्रह्म-भाव अन्तर लखो। करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा।। उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानो। सहै वान-वरषा बहु सूरे, टिकै न नैन-वान लखि कूरे।। कूरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें।। बह मृतक सड़हिं मसान माहीं, काग ज्यों चोंचे भरै।। संसार में विषबेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा।। 'द्यानत' धरम दश पैंडि चढ़िकै, शिव-महल में पग धरा।।
- दशलक्षण धर्म पूजन, जिनवाणी संग्रह,
420 :: जैनधर्म परिचय
For Private And Personal Use Only