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व चिन्तवन से अतीत, मात्र ज्ञाता-द्रष्टा रूप से ज्ञान का भवन ही रूपातीत
ध्यान है। उक्त चतुर्विध धर्म्यध्यान सम्यग्दृष्टि जीवों को ही होता है। 4. शुक्ल ध्यान-निज निरंजन शुद्ध ज्ञानस्वभावी भगवत्स्वरूप आत्मतत्त्व में लवलीन वर्तमान परिणति कि जिसमें मात्र ज्ञान ही ज्ञान का ज्ञेय-ध्येय हो रहा है, जिसमें अन्य ज्ञेयसमुदाय या विकारादिरूप समग्र परिणतिसमुदाय भी निजरूप से बाहर-बाहर रहते हैं, ऐसी निजाधीन परिणति शुक्लध्यान है। इस अवस्था में मुनिराज को बुद्धिपूर्वक समस्त राग समाप्ति की ओर तथा निर्विकल्प समाधि जाग्रत होती है।
इसकी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत चार श्रेणियाँ हैं
(1) पृथक्त्व वितर्क वीचार, (2) एकत्ववितर्क अवीचार, (3) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, (4) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति या व्युपरतक्रियानिवृत्ति । (1) पृथक्त्व वितर्क वीचार-ध्याता पुरुष निजशुद्धात्म संवेदन भावनारत रहते
हुए बाह्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशों में स्वरूप स्थिरता नहीं है उतने अंशों में अनिच्छित विकल्प उत्पन्न होते हैं। अत: द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य, एक शास्त्र वचन से दूसरे शास्त्रवचन तथा एक योग से दूसरे योग के आलम्बन से ध्यान की धारा चलना 'पृथक्त्व वितर्क वीचार' ध्यान है। उपशान्त मोह गुणस्थान की दशा में मुनिराज जो निरन्तर आत्म-ध्यान-रत रहते हैं, यही दशा पृथक्त्व वितर्क वीचार की है। एकत्व वितर्क अवीचार-निज शुद्ध आत्मद्रव्य में, या विकार रहित आत्मसुख अनुभवरूप पर्याय में, उपाधि रहित स्वसंवेदन गुण में, इन तीनों में से जिस एक में अपरिवर्तित निश्चल प्रवृत्ति होना, 'एकत्व वितर्क अवीचार' ध्यान है। क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान में यह ध्यान होता है, जो
कि केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण होता है। (3) सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती-एकत्व वितर्क अवीचार शुक्लध्यान के बल से
जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं तथा जब न तो श्रुत वचन का आश्रय रहता है और न ही योग-संक्रमण होता है, केवल सूक्ष्मकाय योग मात्र का अवलम्बन रहता है तब, जब आयु कर्म का अन्तर्मुहूर्त काल
शेष रहता है, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान सम्पन्न होता है। (4) व्युपरत क्रियानिवृत्ति-श्रुत विकल्प रूप वितर्क तथा योगसंक्रमण रूप
वीचार और मन-वचन-काय-रूप योग-संक्रमण के अभाव में जो स्वस्वरूप में अविचल प्रवृत्ति है, वही व्युपरत क्रिया अनिवृत्ति रूप सर्वोत्तम शुक्ल ध्यान है, इसका समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति अपर नाम है। इस ध्यान के प्रताप से कर्म-रहित निष्कर्म सिद्ध-अवस्था उद्भूत होती है।
426 :: जैनधर्म परिचय
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