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अर्थात् मैं एक हूँ, निर्मम (ममता रहित) हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञान-दर्शन लक्षण हूँ, इसलिए एक शुद्धत्व ही उपादेय है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए।
ऐसा ज्ञान-दर्शन चेतना लक्षण जीवत्व ही मैं हूँ, यही मेरा स्वरूप है, यही मेरी शाश्वतता है। मैं सदैव अपने लक्षणों में एक रूप ही रहा हूँ। मेरे अपने निजभाव के अतिरिक्त मैं पर या परभाव रूप कदापि नहीं हुआ हूँ। मेरे अलावा पर एवं पर के भाव अनन्त होने पर भी वे सब मेरे संयोगी तो हुए पर वे 'मैं' नहीं हुए हैं। मैं सदैव उन सबसे असम्बन्धित रहते हुए उनका मात्र ज्ञाता ही रहा हूँ और अपने ज्ञानभाव का ही भोक्ता रहा हूँ। अन्य सब विभाव भावों का कर्ता या भोक्ता तो संयोग देखकर कहा ही जाता रहा हूँ, तद्रूप हुआ नहीं हूँ।
ऐसा जानकर अपने में अपनत्व करना ही अपनी एकत्व की आराधना है।
5. अन्यत्व
बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीया।। 26 ।।
आचार्य अमितगति
अर्थात् 'जो कुछ बाहर है सब पर है, कर्माधीन विनाशी है।।'
इस विश्व में निज ज्ञायक तत्त्व के अतिरिक्त अन्य अनन्त ज्ञान-स्वभावी जीव व अनन्तानन्त स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण-लक्षण पुद्गल तथा धर्म, अधर्म, आकाश और कालादि पदार्थ भी हैं और वे स्वयं अपने-अपने कार्य रूप सदैव परिणमते हैं। उनके परिणमन में मेरा कोई हस्तक्षेप नहीं चलता और मेरे स्वभाव व परिणमन में उनमें से किसी का भी हस्तक्षेप या दबाव नहीं चलता है।
यद्यपि उनका संयोग मेरे साथ व मेरा संयोग उनके साथ अनन्त बार अनन्त प्रकार से हुआ है, हो रहा है और कदाचित् होता भी रहेगा, परन्तु मात्र संयोग ही तो होगा। वे मेरे स्वभाव रूप कभी न थे, न हैं और न ही होंगे। ऐसा जानकर समस्त पर पदार्थों से तथा क्षणिक अवस्थाओं मात्र से अप्रभावित रहना ही अन्यत्व की भावना है।
एकत्व और अन्यत्व दोनों भावनाओं को आचार्य कुन्दकुन्द ने 'नियमसार' में एवं आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने 'इष्टोपदेश' में इस प्रकार समाविष्ट किया है
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसण लक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संयोग लक्खणा ॥ गाथा 101 ।। एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचराः। बाह्या संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥ श्लोक 27 ॥
430 :: जैनधर्म परिचय
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