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अर्थात् 'मेरा सुशाश्वत एक दर्शन ज्ञान लक्षण जीव है।
बाकी सभी संयोग लक्षण भाव मुझसे बाह्य हैं।' 6. अशचि-अनादि अनन्त चैतन्य चिह्न से पहिचाना जाने वाला निज शुद्धात्मतत्त्व सदैव ज्ञान-दर्शन लक्षणों में परिणमता हुआ स्वभाव से शुद्ध ही है, पवित्र ही है। ऐसी स्वाभाविक पवित्रता का अनुभव पवित्रता (सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय) की उत्पत्ति का कारण है। इस स्वभाव से बाह्य यह निकटस्थ देह तथा देह के प्रति का रागादिभाव सदैव अशुद्धता लिए हुए ही हैं तथा अशुद्धता के कारण व दुःख रूप हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने 'समयसार' में कहा है
णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीय भावं च।
दुक्खस्स कारणं तिय तदो णियत्तिं कुणदि जीवो।। 72।। अर्थात्- अशुचिपना विपरीतता ये आस्रवों का जान के।
अरु दु:ख कारण जानके इनसे निवर्तन जीव करे।। ये रागादि भाव रूप आस्रव ही वास्तव में अशुचि हैं। ज्ञान-दर्शन लक्षण जीव तो तत्समय भी शुद्ध ही बना रहता है। जैसे गन्दे कपड़े में गन्दा तो मैल है, कपड़ा तो उस समय अशुद्ध-गन्दा दिखता है। मात्र दिखता ही है, मैला हुआ नहीं है। कपड़े की स्वच्छता में विवेकियों को मैल में मलिनता ही नजर आती है। कपड़ा तो तत्समय भी स्वच्छ है। ऐसे ही रागादि भावों के समय आत्मा मलिन प्रतीत होता है, किन्तु ज्ञानियों को तो उस समय भी रागादि भाव ही मलिन नजर आते हैं आत्मा तो शुद्ध ही अनुभव में आता है। इसलिए जिन्हें ज्ञानी होने की भावना है उन्हें भी इसी तरह देखना, अनुभवना चाहिए।
देह की अशुचिता, मलिनता तो जगत् प्रसिद्ध है। सप्त धातुमय देह के मिलन का कारण रज-वीर्य रूप मलिन पदार्थ हैं। यह देह मांस, हड्डी, खून आदि मलिन पदार्थों से भरी है, व्याधियों से घिरी ही रहती है। और तो और, केशर चन्दनादि पवित्र पदार्थ भी देह के स्पर्श मात्र से मलिन हो जाते हैं तथा यह देह निरन्तर मलों को ही उत्पन्न करने वाली अपवित्र संयोगिक वस्तु है, प्रीति के योग्य नहीं है। देह-प्रीति के योग्य नहीं है, तो द्वेष के योग्य भी नहीं है, विरक्तता का ही हेतु है। देह को दूर नहीं करना है, देह से मात्र दूरी बनाके जीना है।
निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह। जानि भव्य निज भाव को, यासौं तजो सनेह ॥
पं. जयचन्दजी छावड़ा, बारह भावना
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 431
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