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पं. जयचन्द जी छावड़ा कृत 'बारह भावना' भी यही इशारा करती है
शुद्धातम अरु पंच गुरु, जग में सरनौ दोय।
मोह उदय जिय के वृथा, आन कल्पना होय।। 3. संसार-अनादि-अनन्त इस लोक में जीव को हितलाभ के लिए एकमात्र निज शुद्ध स्वभाव एवं उसकी आराधना ही सारभूत है, जिससे यह जीव स्वाधीन स्थायी सुखलाभ-प्राप्त करता है। इस स्वतत्त्व के अतिरिक्त इस विश्व में अनन्त जीव और अनन्तानन्त पुद्गलादि पदार्थ हैं, किन्तु वे कोई भी सारभूत नहीं हैं।
ऐसे अपने-अपने अनन्त गुण-पर्यायों से युक्त समस्त जीवादि पदार्थ जो कि मेरे लिए पर हैं, असार हैं, उनके प्रति प्रीति का होना ही संसार है, दु:ख रूप है, दुःख का कारण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पंच परावर्तनमयी अनन्त संसार में निज आत्मा के अतिरिक्त सब कुछ असार है। इन असार तत्त्वों का अनुराग चतुर्गति भ्रमण का कारण है जो कि सदैव दुःख स्वरूप है। इसलिए परोन्मुखता से हटकर स्वसन्मुखता का पुरुषार्थ ही कर्तव्य है। यही असार रूप संसार में सार भूत तत्त्व की भावना है।
षड्द्रव्यमयी लोक का नाम संसार नहीं है, षड्द्रव्यमयी जो लोक या विश्व है, वह विश्व जीव को दुःख रूप नहीं है, किन्तु संसार में जीव दुःखी होता है अर्थात् संसार लोक में नहीं अपितु जीव के अन्तर्भावों में राग-द्वेष-मोह रूप परिणामों से है। वे विकृत भाव जीव ने अज्ञानवश कल्पना से उत्पन्न किये हैं।
जीव का सुख जीव के स्वयं के ज्ञान स्वभाव में है, अन्यत्र किसी भी द्रव्यादि के पास जीव का सुख नहीं है। ऐसे अपने स्वभाव से अपरिचित जीव अन्य पदार्थों से सुख की कामना रूप राग-द्वेष भावों में उलझता रहता है, दुःखी होता रहता है।
जैसे शिकारी के उपद्रव से भयभीत भागता हुआ खरगोश, अजगर के खुलेफैले हुए मुँह को बिल समझकर प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार जीव अज्ञानता में क्षुधा, तृषा, काम-क्रोधादि तथा इन्द्रियों के विषयों की तृषा के आताप से सन्तापित होकर विषय रूप अजगर के मुख में प्रवेश करता है। विषय कषायों में प्रवेश करना ही संसाररूप अजगर का मुख है। इसमें प्रवेश कर अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्तादि भाव प्राणों को न पहचान कर भ्रम में रहता हुए निगोदादि में अचेतन-जैसा होकर अनन्त बार जन्ममरण करता हुआ अनन्तकाल व्यतीत करता है। 4. एकत्व
एक्कोहं णिम्ममो सुद्धो णाण दंसण लक्खणो। सुद्धेयत्तमुवादेयं एवं चिंतेइ सव्वदा॥20॥
आचार्य कुन्दकुन्द, बारसाणुवेक्खा ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 429
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