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से उत्पन्न आसक्ति ढीली पड़ने लगती है और सहज ही वैराग्य के अंकुर फूटने लगते
हैं । यही पुनः पुनः चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है, भावना है।
वे बारह भावनाएँ प्रसिद्ध हैं
1. अनित्य, 2. अशरण, 3. संसार, 4. एकत्व, 5. अन्यत्व, 6. अशुचि, 7. आस्रव, 8. संवर, 9. निर्जरा, 10. लोक, 11. बोधि - दुर्लभ और 12. धर्म |
1. अनित्य - ज्ञान और आनन्द स्वभावी मैं आत्मतत्त्व अनादि अनन्त जीव तत्त्व हूँ। न मेरा जन्म होता है और न ही मेरा मरण सम्भव है; क्योंकि मैं शाश्वत तत्त्व हूँ। मेरे अलावा मुझे इस विश्व के समस्त पदार्थों का संयोग होता है। संयोग तो वियोग स्वभावी होते हैं, अतः उनके भरोसे मुझे स्थायित्व और स्वाधीनता का लाभ नहीं मिल सकता है। अन्य पदार्थ चेतन हों या अचेतन, कोई भी मुझे लाभान्वित कर सकने या हानि कर सकने की सामर्थ्य नहीं रखते हैं, क्योंकि वे सभी क्षणभंगुर हैं। चाहे ये शरीर हो, सम्पत्ति हो या सम्बन्धी, सबके सब छूटने वाले हैं। इनका अस्तित्व भोर के तारों की भाँति है, जो कुछ क्षणों में ही विलीन होने वाले हैं, किन्तु मैं स्वयं अपने अस्तित्व में सदा विद्यमान रहने वाला नित्य तत्त्व हूँ। कहा भी गया है—
द्रव्यरूप करि सर्व थिर पर्यय थिर है कौन। द्रव्यदृष्टि आपा लखौ परजय नय करि गौन ॥
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428 :: जैनधर्म परिचय
पं. जयचन्द छावड़ा, बारह भावना
2. अशरण - अनादि-निधन विश्व में इस जीव को अपना निज आत्मा ही शरण है कि जिस आत्मा को निरन्तर ज्ञान का विषय बनाये रहने पर अतीन्द्रिय आनन्द निर्भय होकर भोगा जाता है । इस निज आत्मा से उपयोग के हटने पर, जिन्होंने निज आत्मा की शरण ली है ऐसे पंच परमेष्ठी तथा उनका बताया धर्म ही इस जीव को शरणभूत है कि जिनकी शरण में रहकर जीव आकुलताओं से बचा रह सकता है। इनके अलावा संसार में कोई भी इस जीव को जन्म- जरा - मृत्यु रूपी भयों से बचा नहीं सकता। चाहे कितना भी बड़ा परिकर और परिवार हो, धन और वैभव हो अथवा देवी - देवताओं की उपासना भी की जाए, आयु के अन्त समय पर इनका कोई जोर नहीं चलता, सारे साधन रहते हुए भी निष्प्राण हो जाते हैं। जन्म लेने वाले का मरण अनिवार्य है। बड़ीबड़ी औषधि, मन्त्र - तन्त्र और सारे पदार्थ व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं । जिस प्रकार सिंह के मुख में प्रविष्ट हिरण को कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार इस देहधारी को मृत्युरूपी सिंह के मुख से बचाया नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में इस जीव को यदि कोई शरण है तो मात्र निजात्मा या देव-गुरु-धर्म ही शरण है। भगवान वासुपूज्य की पूजा की जयमाल में कहा है
" निजातम कै परमेसुर शर्न, नहीं इनके बिन आपद हर्न"
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