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ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग
राकेश जैन शास्त्री
उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ।। 9/27 ।।
आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र अर्थात् उत्तम संहनन वाले का एक विषय में ही चित्तवृत्ति को रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। ___एकाग्रता का नाम ही ध्यान है अर्थात् व्यक्ति जिस समय जिस भाव का चिन्तवन करता है, उस समय वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। रुचि पूर्वक जाने हुए विषय में 'ध्यान' बिना किसी प्रयास के सहज ही होता है। इस ध्यान के लिए कोई प्रशिक्षण इत्यादि की आवश्यकता नहीं होती है। आवश्यकता तो इतनी ही है कि जिसका हम ध्यान करना चाहते हैं, पहले उसे भली प्रकार सम्यक्तया जान लें तथा जानकर पसन्द कर लें। तत्सम्बन्धी ध्यान तो स्वयमेव होता है। जीवमात्र इस ध्यान से परिचित है। संसार दशा में भी जीव ध्यान करता ही रहता है। वह ध्यान एक आत्म तत्त्व को आगे करके नहीं अपितु अन्य पदार्थों की अनन्तता में से किसी को पसन्द करके होता है। यह पसन्द भी सदैव एक-रूप नहीं होती है। कभी किसी के प्रति तो कभी अन्य किसी के प्रति इस कारण यह जीव ध्यानरत रहते हुए भी आकुलता-सम्पन्न बना रहता है। प्रयास तो आनन्द के लिए करता है और फल आकुलता का मिलता है। इसका कारण इतना ही है कि ध्यान योग्य (ध्येय) का निर्णय ज्ञान से किया नहीं गया और न ही तत्सम्बन्धी रुचिकरता हुई है।
हमारा ध्यान आनन्द रूप फलवाला हो इसके लिए मात्र ध्यान का विषय ज्ञान द्वारा निर्णीत होना चाहिए।
श्री चामुण्डराय विरचित 'चारित्रसार' ग्रन्थ में ध्यान को चार अंग वाला तथा दो प्रकार का बताया गया है
वे चार अंग हैं-ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यानफल। इन चार अंगों वाला ध्यान
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