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4. निष्ठुरा- मैं तुम्हें मार डालूँगा, सिर काट लूँगा इत्यादि बोलना ।
5. पर कोपिनी - क्रोध उत्पादक, जैसे तुम्हारा कोई तप है, हँसता रहता है, निर्लज्ज है, इत्यादि बोलना ।
6. छेदंकरी - वीर्य शील गुणों का नाश करने वाली अथवा अविद्यमान दोषों को प्रकट करने वाली भाषा बोलना ।
7. मध्यकृशा - ऐसी कठोर भाषा बोलना जो हड्डी को भी पतला करती है।
8. अतिमानिनी- अपनी प्रशंसा, पर की निन्दा युक्त भाषा बोलना ।
9. अनयंकरा - शील भंग करने वाली अथवा मित्रता नष्ट करने वाली भाषा
बोलना।
10. भूतघातकरी - प्राणियों के प्राणों का वियोग करने वाली भाषा बोलना ।
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हृदय साँच है, ताके हृदय प्रभु आप ॥ 1 ॥
कोयल काको देत है, कागा काको लेत ।
मीठी वाणी बोलकर, जग अपना कर लेत ॥ 2 ॥ दशधर्म स्कन्ध, पृ. 107
उत्तम संयम- संयम का अर्थ है- आत्मप्रवृत्तियों को रोकना । संयम आत्म-साधना के आध्यात्मिक मार्ग में जितना आवश्यक और कल्याणकारी है, उतना ही समाज एवं राजनीति में भी है। फिर भी परमार्थ- दृष्टि से जैसा संयम साधा जा सकता है वैसा अन्य किसी भी उपाय से नहीं। शास्त्रकारों ने इसके दो भेद किये हैं- (1) इन्द्रिय- संयम और (2) प्राणि-संयम । छह इन्द्रियों और मन की प्रवृत्ति को वश में रखना इन्द्रिय- संयम और छह काय के जीवों की हिंसा से विरत रहना प्राणि-संयम है। संयम एक अमूल्य रत्न है, विषयरूपी चोरों से इसकी सुरक्षा अत्यावश्यक है।
उत्तम तप- इच्छाओं का निरोध तप है । इच्छाएँ अनन्त हैं। मनुष्य की एक इच्छा पूर्ण होती नहीं है कि शीघ्र ही दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार इच्छाओं का अन्त नहीं होता। इसीलिए मनीषी आचार्यों ने कहा है कि इच्छाओं का दमन करो। जैनधर्म में तप दो प्रकार का कहा है- (1) बाह्य तप और (2) आभ्यन्तर तप ।
अनशन (फल की कांक्षा के बिना संयमवृद्धि के लिये किया गया उपवास), अवमौदर्य (संयम में सावधान रहने के लिये कम भोजन करना), वृत्ति परिसंख्यान (भोजन की प्रवृत्ति में सब प्रकार से मर्यादा करना), रस परित्याग ( स्वाध्यायकी सिद्धि, इन्द्रिय निग्रह एवं निद्रा - विजय के लिए रसों का त्याग करना), विविक्त शय्यासन (ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि हेतु एकान्त स्थान में सोना, उठना-बैठना ), क्लेश (शारीरिक सुखों की इच्छा मिटाने तथा दुःख सहन करने की शक्ति बढ़ाने के लिए
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पर्युषण पर्व :: 417
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