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के निमित्त से होने वाले या तो संयोगीभाव हैं या संयोग हैं, अतः अजीव हैं ।'
ज्ञानी इन सब आगन्तुक भावों से भेद- ज्ञान करके ऐसा मानता है कि "मैं एक हूँ, अरूपी हूँ, ज्ञान-दर्शनमय हूँ, इसके सिवाय अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं। इसी दृष्टि से समयसार गाथा - 2, 6 एवं 7 भी महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें क्रमशः स्वसमय-परसमय एवं प्रमत्त - अप्रमत्त के सन्दर्भ में पर व पर्यायों से भेद - ज्ञान कराके शुद्धात्मस्वरूप का विशद स्पष्टीकरण किया गया है।
2. समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार में वस्तु - स्वातन्त्र्य या छहों द्रव्यों के स्वतन्त्र परिणमन का निरूपण, प्रकारान्तर से परद्रव्य के अकर्तृत्व का ही निरूपण है । यह अकर्तावाद का सिद्धान्त आगमसम्मत, युक्तियों एवं सिद्धान्तशास्त्रों की पारिभाषिक शब्दावलियों द्वारा स्थापित तो है ही, पर अपने व्यावहारिक लौकिक जीवन में भी उसकी उपयोगिता असंदिग्ध है ।
आगम के दबाव और युक्तियों की मार से सिद्धान्ततः स्वीकार कर लेने पर भी अपने दैनिक जीवन को छोटी-मोटी पारिवारिक घटनाओं के सन्दर्भ में उन सिद्धान्तों प्रयोगों द्वारा आत्मिक शान्ति और निष्कषाय भाव रखने की बात जगत् के गले आसानी से नहीं उतरती, उसके अन्तर्मन को सहज स्वीकृत नहीं होती, जबकि हमारे धार्मिक सिद्धान्तों की सच्ची प्रयोगशाला तो हमारे जीवन का कार्यक्षेत्र ही है।
क्या अकर्तावाद जैसे संजीवनी सिद्धान्त केवल शास्त्रों की शोभा बढ़ाने या बौद्धिक व्यायाम करने के लिए ही हैं ?... अपने व्यावहारिक जीवन में प्रामाणिकता, नैतिकता एवं पवित्रता प्राप्त करने में इनकी कुछ भूमिका - उपयोगिता नहीं है ?
जरा सोचो तो, अकर्तृत्त्व के सिद्धान्त के आधार पर जब हमारी श्रद्धा ऐसी हो जाती है कि कोई भी जीव किसी अन्य जीव का भला या बुरा कुछ भी नहीं कर सकता, तो - फिर हमारे मन में अकारण ही किसी के प्रति राग-द्वेष-मोहभाव क्यों होंगे ?
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि अकर्तृत्व की सच्ची श्रद्धा वाले ज्ञानियों के भी क्रोधादि भाव एवं इष्टानिष्ट की भावना प्रत्यक्ष देखी जाती है तथा उनके मन में दूसरों का भला-बुरा या बिगाड़-सुधार करने की भावना भी देखी जाती है - इसका क्या कारण है ?
उत्तर यह है कि यद्यपि सम्यग्दृष्टि की श्रद्धा सिद्धों जैसी पूर्ण निर्मल होती है, तथापि वह चारित्रमोह कर्मोदय के निमित्त से एवं स्वयं के पुरुषार्थ की कमी के कारण दूसरों पर कषाय करता हुआ भी देखा जा सकता है; पर सम्यग्दृष्टि उसे अपनी कमजोरी मानता है । उस समय भी उसकी श्रद्धा में तो यही भाव है कि पर ने मेरा कुछ भी बिगाड़ - सुधार नहीं किया है। अतः उसे उसमें अनन्त राग- - द्वेष नहीं होता । उत्पन्न हुए कषाय को यथाशक्ति कृश करने का पुरुषार्थ भी निरन्तर चालू रहता है । अत: इस अकर्तावाद के सिद्धान्त को धर्म का मूल आधार या धर्म का प्राण भी कहा जाये तो
अध्यात्म : 403
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