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विकार नहीं होता। प्रत्येक पदार्थ अपने गुण-पर्यायों में अनन्य होता है। अतः वह अपने ही गण-पर्याय-रूप परिणमन करता है। इसलिए उसमें पर के कर्तृत्व की कल्पना निरर्थक है।
इस अधिकार को कर्त्ता-कर्म का उपसंहार भी कहा जा सकता है।
इस प्रकार आगम के आधार पर अनेक तर्कों द्वारा आचार्यदेव ने अज्ञानी के अज्ञान को दूर करने का सफल प्रयास किया है।
इस प्रकार समयसार के जीवाजीवाधिकार में जैन अध्यात्म' की दृष्टि से जीवाजीव से भेद-ज्ञान कराते हुए तथा कर्ता-कर्माधिकार के माध्यम से कर्ता-कर्म के सम्बन्ध से जीव के अकर्तृत्व का भान कराते हुए पुण्य-पाप दोनों को ही संसार का कारण बताने के साथ भूमिकानुसार पुण्य की उपयोगिता दर्शाते हुए आम्रव, बन्ध एवं मोक्ष का स्वरूप दिखाकर एक बार पुनः सर्वविशुद्ध ज्ञान अधिकार द्वारा कर्ता-कर्म का स्वरूप ही पुनः विस्तार से बताया गया है। इनके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द के ही अन्य ग्रन्थ प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय ग्रन्थों में तथा आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र, आचार्य पूज्यपादस्वामी के सर्वार्थसिद्धि, आचार्य अकलंक देव के राजवार्तिक एवं आचार्य समन्तभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार के प्रथम अध्याय तथा योगीन्दु देव के योगसार व परमात्मप्रकाश, आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन आदि ग्रन्थों में भी जैन अध्यात्म का बहुत सुन्दर एवं सरल शब्दों में प्रतिपादन किया गया है। अध्यात्म-रुचि-सम्पन्न व्यक्तियों को उपर्युक्त सभी ग्रन्थों का आद्योपान्त अनेक बार अध्ययन करना चाहिए। इन आध्यात्मिक ग्रन्थों में भी जो 'जैन अध्यात्म' प्रस्तुत किया गया है, उसका यदि पाठक अवलोकन करेंगे, तो निःसन्देह वे आत्मानुभूति को प्राप्त कर लेंगे। इन सभी ग्रन्थों को पढ़ने की कुंजी के रूप में आचार्यकल्प पण्डितों के पण्डित श्री टोडरमलजी के मोक्षमार्ग-प्रकाशक का अध्ययन भी अवश्य करना चाहिए।
सन्दर्भ
1. समयसार, गाथा 50 से 55 2. समयसार, कलश 37 3. समयसार, गाथा 49 4. समयसार, गाथा 39 से 43 5. समयसार, गाथा 38 6. समयसार, गाथा 73 की आत्मख्याति टीका 7. समयसार, गाथा 145 8. समयसार, गाथा-146 9. समयसार, गाथा-150 10. समयसार नाटक, पुण्य-पाप-एकत्वद्वार, छन्द 6
अध्यात्म :: 409
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