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में दशलक्षण का आरम्भ भाद्रपद शुक्ल पंचमी से होता है। इसकी आरम्भ तिथि भाद्रपदशुक्ल पंचमी है और समाप्ति तिथि भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी। बीच में किसी तिथि की कमी हो जाने पर यह व्रत एक दिन पहले से किया जाता है। इसमें समाप्ति की तिथि चतुर्दशी ही नियामक है। परम्परा के अनुसार दशलक्षण पर्व वर्ष में तीन बार आते हैं, लेकिन यह भादों महीने वाले दशलक्षण पर्व को ही समाज में मनाया जाता है।
छठे काल के अन्त में भरत और ऐरावत खण्ड में प्रलय होती है। छठे काल के अन्त में संवर्त नामक पवन पर्वत, वृक्ष, पृथ्वी आदि को चूर्णकर समस्त दिशा और क्षेत्र में भ्रमण करता है। इस पवन के कारण समस्त जीव मूछित हो जाते हैं। विजयार्द्ध की गुफा में रक्षित 72 युगलों के अतिरिक्त समस्त प्राणियों का संहार हो जाता है। इस काल के अन्त में तेज पवन, अत्यन्त शीत, क्षार रस, विष, कठोर अग्नि, धूलि और धुआँ की वर्षा एकएक सप्ताह तक होती है। इसके पश्चात् उत्सर्पिणी काल का प्रवेश होता है अर्थात् छठे काल के अन्त होने के उनचास दिन पश्चात् नवीन युग का आरम्भ होता है।
सृष्टि का पुनर्निर्माण- प्रलय के अनन्तर उनचास दिन तक सुवृष्टि होती है। इससे पृथ्वी की गर्मी शान्त होती है और लता, वृक्ष वगैरह उगने लगते हैं। छिपे हुए मनुष्ययुगल अपने-अपने स्थानों से निकलकर पृथ्वी पर बसने लगते हैं। इस तरह सृष्टि का पुनर्निर्माण होता है। मानव जाति ने सृष्टि की सुखद स्मृति के प्रतीक के रूप में पर्दूषण मनाना प्रारम्भ किया।
उत्तम-तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी ने लिखा है, 'उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौचसत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः।' दृष्टव्य है कि इसमें, उत्तम क्षमादि दस धर्मों को, उमास्वामी ने, एक वचन में धर्म कहा है। इससे स्पष्ट होगा कि ये दस, एक ही धर्म के दस लक्षण है। द्रव्य-दृष्टि से 'वत्थु सहावो धम्मो', माने 'वस्तु स्वभावो धर्मः' कहा गया है। इस सूत्रानुसार वस्तु स्वभाव ही धर्म है और स्वभाव में स्थित रहकर ही शान्ति मिलती है, तथा क्रोधादि से व्याप्त रहकर कोई भी प्राणी अपने अन्तरंग मन में शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता। इन दस धर्मों के पीछे लगाया गया 'उत्तम' शब्द बताता है कि, ये दसों धर्म संयम के पालन के लिए हैं।
उत्तम क्षमा-क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्षमा पृथ्वी का भी नाम है। जिस प्रकार पृथ्वी तरह-तरह के बोझ को सहन करती है, उसी प्रकार चाहे कैसी भी विषम परिस्थिति आए उसमें अपने मन को स्थिर रखना, अपने आपको क्रोध-रूप परिणत न करना क्षमा है। क्रोध आत्मा का शत्रु है, इसके वशीभूत प्राणी अपने आप को भी भूल जाता है। इससे उसके सभी प्रयोजन नष्ट हो जाते हैं।
क्षान्तिरेव मनुष्याणां, मातेव हितकारिणी। माता कोपं समायाति, क्षान्ति व कदाचन ।। 4 ।।
पयूषण पर्व :: 411
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