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की प्रतीक मेरी बायीं आँख फड़कती है, उसे तुरन्त बन्द करके शुभ शकुन
की प्रतीक दायीं आँख क्यों नहीं फड़का लेता? 2. यदि मैं अपने प्रयत्नों से शरीर को स्वस्थ रख सकता हूँ, तो प्रयत्नों के बावजूद
भी यह अस्वस्थ क्यों हो जाता है?... जब किसी को कैंसर, कोढ़ एवं दमाश्वांस जैसे प्राणघातक भयंकर दुःखद रोग हो जाते हैं तो वह उन्हें अपने
प्रयत्नों से तत्काल ठीक क्यों नहीं कर लेता? 3. यदि मैं किसी का भला कर सकता, तो सबसे पहले अपने कुटुम्ब का भला
क्यों न कर लेता?... फिर मेरे ही परिजन-पुरजन दु:खी क्यों रहते?... मैंने अपनी शक्ति-अनुसार उनका भला चाहने व करने में कसर भी कहाँ छोड़ी,
पर मैं इच्छानुसार किसी का कुछ भी नहीं कर सका।। 4. इसी प्रकार, यदि कोई किसी का बुरा या अनिष्ट कर सकता होता, तो आज
सम्भवतः यह दुनिया ही इस रूप में न होती, सभी-कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो गया होता; क्योंकि दुनिया तो राग-द्वेष का ही दूसरा नाम है। ऐसा कोई व्यक्ति, नहीं जिसका कोई शत्रु न हो; पर आज जगत यथावत् चल रहा है। इससे स्पष्ट है कि कोई किसी के भले-बुरे, जीवन-मरण व सुख-दुःख का कर्ताहर्ता नहीं है। जो होना होता है, वही होता है; किसी के करने से कुछ नहीं
होता। लोक में सभी कार्य स्वतः अपने-अपने षट्कारकों से ही सम्पन्न होते हैं। उनका कर्ता-धर्ता मैं नहीं हूँ। ऐसी श्रद्धा से ज्ञानी पर के कर्तृत्व के भार से निर्भार होकर अपने ज्ञायकस्वभाव का आश्रय लेता है। यही आत्मानुभूति का सहज उपाय है।
प्रत्येक द्रव्य व उनकी विभिन्न पर्यायों के परिणमन में उनके अपने-अपने कर्ता, कर्म, करण आदि स्वतन्त्र षट्कारक हैं, जो उनके कार्य के नियामक कारण हैं। ऐसी श्रद्धा का बल बढ़ने से ही ज्ञानी ज्यों-ज्यों उन षट्कारकों की प्रक्रिया से पार होता है, त्यों-त्यों उसकी आत्म-शुद्धि में वृद्धि होती जाती है। ___ जब कार्य होना होता है, तब कार्य के नियामक अन्तरंग षट्कारक एवं पुरुषार्थ, काललब्धि एवं निमित्तादि पाँचों समवाय स्वत: मिलते ही हैं और नहीं होना होता है, तो अनन्त प्रयत्नों के बावजूद भी कार्य नहीं होता तथा तदनुरूप कारण भी नहीं मिलते। मिथ्यात्व एवं अनन्तानुबन्धी कषाय के अभाव से अकर्तावाद सिद्धान्त की ऐसी श्रद्धा हो जाती है कि जिससे उसके असीम कष्ट सीमित रह जाते हैं। जो विकार शेष बचता है, उसकी उम्र भी लम्बी नहीं होती।
बस, इसीलिए तो आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में जीवाजीवाधिकार के तुरन्त बाद ही कर्ताकर्म अधिकार लिखने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया है। इसमें बताया गया है-जगत् का प्रत्येक पदार्थ पूर्णतः स्वतन्त्र है, उसमें होने वाले नित्य नये परिवर्तन
अध्यात्म :: 405
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