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या परिणमन का कर्ता वह पदार्थ स्वयं है। कोई भी अन्य पदार्थ या द्रव्य किसी अन्य पदार्थ या द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है।
समयसार के कर्ता-कर्म-अधिकार का मूल प्रतिपाद्य ही यह है कि पर-पदार्थ के कर्तृत्व की तो बात ही क्या कहें, अपने क्रोधादि भावों का कर्तृत्व भी ज्ञानियों के नहीं है। जब तक यह जीव ऐसा मानता है कि मैं (आत्मा) कर्ता व क्रोधादि भाव मेरे कर्म हैं, तब तक वह अज्ञानी है तथा जब स्व-संवेदन ज्ञान द्वारा क्रोधादि आस्रवों से शुद्धात्म स्वरूप को भिन्न जान लेता है, तब ज्ञानी होता है।
यद्यपि जीव व अजीव दोनों द्रव्य हैं, तथापि जीव के परिणामों के निमित्त से पुदगल कर्मवर्गणाएँ स्वतः अपनी तत्समय की योग्यता से कर्म-रूप परिणत होती हैं और पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से जीव अपनी तत्समय की योग्यता से रागादि परिणामस्वरूप से परिणमित होता है। इस प्रकार जीव के व कर्म के कर्ता-कर्म-सम्बन्ध नहीं हैं, क्योंकि न-तो जीव पुद्गलकर्म के किसी गुण का उत्पादक है और न पुद्गल जीव के किसी गुण का उत्पादक है। केवल एक-दूसरे के निमित्त से दोनों का परिणमन अपनी-अपनी उपादान की योग्यतानुसार होता है। इस कारण जीव सदा अपने भावों का कर्ता होता है, अन्य का नहीं। ___ यद्यपि आत्मा वस्तुत: केवल स्वयं का ही कर्ता-भोक्ता है, द्रव्यकर्मों का नहीं, तथापि द्रव्यकर्मों के उदय के निमित्त से आत्मा को सांसारिक सुख-दुःख का कर्ताभोक्ता कहा जाता है, परन्तु ऐसा कहने का कारण पर का या द्रव्यकर्म का कर्तृत्व नहीं है, बल्कि आत्मा में जो अपनी अनादिकालीन मिथ्या मान्यता या अज्ञानता से रागद्वेष-मोह कषायादि भावकर्म हो रहे हैं, उनके कारण यह सांसारिक सुख-दुःख का कर्ता-भोक्ता होता है। वस्तुतः आत्मा किसी से उत्पन्न नहीं हुआ, अत: वह किसी का कार्य नहीं है तथा वह किसी को उत्पन्न नहीं करता, इस अपेक्षा वह किसी का कारण भी नहीं है। अत: दो द्रव्यों में मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। ध्यान रहे, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध दो द्रव्यों में होता है, जो कि पूर्ण स्वतन्त्र व स्वावलम्बी होते हैं।
आत्मा जब तक कर्म-प्रकृतियों के निमित्त से होने वाले विभिन्न पर्यायरूप उत्पादव्यय का परित्याग नहीं करता, उनके कर्तृत्व-भोक्तृत्व की मान्यता नहीं छोड़ता, तब तक वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि एवं असंयमी रहता है। जब वह अनन्त कर्म व कर्मफल के कर्तृत्व-भोक्तृत्व के भाव का परित्याग कर देता है, तब वह बन्ध से रहित होकर केवल ज्ञाता-दृष्टा हो जाता है।।
जिस प्रकार नेत्र विभिन्न पदार्थों को देखता मात्र है, उनका कर्ता व भोक्ता नहीं होता; उसी प्रकार ज्ञान बन्ध तथा मोक्ष को एवं कर्मोदय तथा निर्जरा को जानता मात्र है, उनका कर्ता व भोक्ता नहीं होता। ऐसी श्रद्धा से ज्ञानी पर के कर्तृत्व-भोक्तृत्व के
406 :: जैनधर्म परिचय
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