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भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
वस्तुतः पर में अकर्तत्व की यथार्थ श्रद्धा रखने वाले का तो जीवन ही बदल जाता है। वह अन्दर ही अन्दर कितना सुखी, शान्त, निरभिमानी, निर्लोभी और निराकुल हो जाता है; अज्ञानी तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता।
समयसार के अकर्तावाद का तात्पर्य यह है कि जो प्राणी अपने को अनादि से परद्रव्य का कर्ता मानकर राग-द्वेष-मोह भाव से कर्म-बन्धन में पड़कर संसार में परिभ्रमण कर रहा है, वह अपनी इस मूल भूल को सुधारे और अकर्तृत्व की श्रद्धा के बल से राग-द्वेष का अभाव कर वीतरागता प्रकट करे; क्योंकि वीतरागता हुए बिना पूर्णता, पवित्रता व सर्वज्ञता की प्राप्ति सम्भव नहीं है। एतदर्थ अकर्तावाद को समझना अति आवश्यक है।
वस्तुतः कर्ता-कर्म-सम्बन्ध दो द्रव्यों में होता ही नहीं है, एक ही द्रव्य में होता है। इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कलश द्रष्टव्य है
"यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म।
या परिणति क्रिया सा, त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।।51।।" जो परिणमित होता है, वह कर्ता है; जो परिणाम होता है, उसे कर्म कहते हैं और जो परिणति है, वह क्रिया कहलाती है, वास्तव में तीनों भिन्न नहीं हैं।"
इस कलश से स्पष्ट है कि जीव और पुद्गल में कर्ता-कर्म-सम्बन्ध नहीं है। वस्तुतः कर्तृ-कर्म सम्बन्ध वहीं होता है, जहाँ व्याप्य-व्यापक भाव या उपादान-उपादेय भाव होता है। जो वस्तु कार्यरूप परिणत होती है, वह व्यापक है, उपादान है तथा जो कार्य होता है, वह व्याप्त है, उपादेय है।। __ यदि आत्मा पर-द्रव्यों को करे, तो नियम से वह उनके साथ तन्मय हो जाये, पर तन्मय नहीं होता, इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है। वीतरागता प्राप्त करने के लिए अकेला अकर्ता होना ही जरूरी नहीं है, बल्कि अपने को पर का अकर्ता जानना, मानना और तद्प आचरण करना भी जरूरी है। एक-दूसरे के अकर्ता तो सब जीव हैं ही, पर भूल से अज्ञानियों ने अपने को पर का कर्ता मान रखा है, इस कारण उनकी अनन्त आकुलता और क्रोधादि कषायें कम नहीं होती, अन्यथा इस अकर्तृत्व सिद्धान्त की श्रद्धा वाले व्यक्ति के विकल्पों का तो स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का होता है कि उसे समयसमय पर प्रतिकूल परिस्थिति-जन्य अपनी आकुलता कम करने के लिए वस्तु के स्वतन्त्र परिणमन पर एवं उस परिणमन में पर की अपेक्षा से अपनी अकिंचित्करता के स्वरूप के आधार पर ऐसे विचार आते हैं कि जिनसे उसकी आकुलता सहज ही कम हो जाती है। उदाहरणार्थ वह सोचता है कि
1. यदि मैं अपने शरीर को अपनी इच्छानुसार परिणमा सकता, तो जब भी अपशकुन 404 :: जैनधर्म परिचय
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