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यन्त्र-प्रतिष्ठा-दशलक्षण, षोडशकारण, भक्तामर, कल्याण-मन्दिर एवं श्रुतस्कन्ध आदि की आराधना यन्त्रों द्वारा की जाती है। जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा-विधि की तरह ही यन्त्रों की शुद्धि एवं प्रतिष्ठा की जाती है। पाषाण, स्वर्ण, रजत, ताम्रपत्र पर बीजाक्षर अंक एवं विशेष आकृतियों को उकेरकर जल, सौषधि, अभिषेक, शान्तिधारा द्वारा शुद्धि करके केशर। पुष्प एवं पीली सरसों का मन्त्र-पूर्वक प्रयोग करके यन्त्र-प्रतिष्ठा-विधि करते हैं, तभी यन्त्र पूज्यता को प्राप्त होते हैं। ___ चरण-प्रतिष्ठा-तीर्थंकरों का निर्वाण होते ही सौधर्म इन्द्र उस निर्वाण क्षेत्र पर तीर्थंकरों के चरण चिह्न (चरण का तलवे वाला भाग जिसमें रेखाएँ भी स्पष्ट बनायी जाती हैं) स्थापित करता है। उस क्षेत्र को सिद्ध-क्षेत्र कहा जाता है। उसी परम्परा में तीर्थंकरों, आचार्यों एवं मुनिराजों के चरण की स्थापना की जाती है। चरण-प्रतिष्ठा में चरणों की शुद्धि, जल, केशर एवं पुष्पों से संस्कार-विधि द्वारा करते हैं।
दिगम्बर परम्परा में जहाँ तलवे वाले चरण चिह्न पूज्य माने जाते हैं। वहीं श्वेताम्बर परम्परा में नख, वेष्ठित ऊपर वाला भाग चरण रूप में पूज्य माना गया है। जिनबिम्ब प्रतिष्ठा में मन्त्र, यन्त्र एवं तन्त्र का महत्त्व
बिम्बप्रतिष्ठा विधि में पाषाण एवं धातु बिम्बों में आराध्य के गुणों का आरोपण एवं संस्कार मन्त्र ऊर्जा (शक्ति) से किया जाता है। मन्त्र-शक्ति का आरोपण विभिन्न बीजाक्षरों के विशेष विन्यास यथा -पृथ्वी बीज, जल बीज, वायु बीज, अग्नि बीज, व्योम बीज, बीजाक्षरों से आकर्षण, सम्मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, शान्तिक एवं पौष्टिक रूप मन्त्रों द्वारा किया जाता है।
इस मन्त्र की शक्ति पर जहाँ शिल्पी की संयमसाधना, एकाग्रता, समर्पण एवं अनुभव (कार्यकुशलता) का प्रभाव होता है, वहीं पाषाण की संरचना, रंग, निर्दोषता का प्रभाव भी होता है।
मन्त्र-शक्ति शुभलग्न, तिथि, वार आदि के साथ प्रतिष्ठा-पात्रों की शुद्धि-विशुद्धि एवं भावनात्मक श्रद्धा, प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् की संयम-साधना एवं मन्त्र प्रदाता आचार्य/ मुनि की तप:शक्ति प्रभाव डालती है।
मन्त्र-संस्कार बीजाक्षरों का बिम्ब के सर्वांग पर आरोपण (अंगन्यास एवं मन्त्रन्यास) सिद्धार्था, कुंकुम रंजित अक्षत, लवंग, विभिन्न क्वाथ, सर्वौषधि, उबटन, सप्तधान्य, मदनफल, यवमाला, स्वर्णशलाका, रजत एवं ताम्र-यन्त्र आदि से किया जाता है, यह तन्त्र-क्रिया कहलाती है। यह तन्त्र-क्रिया मन्त्रोच्चारण, हस्तस्पर्शन, सामग्रीसमर्पण, जलधारा, लवंग एवं सिद्धार्था क्षेपण करके की जाती है। गर्भकल्याणक से दीक्षाकल्याणक के पूर्व तक की तन्त्र एवं मन्त्र क्रिया दिक्कन्याओं, शचि, इन्द्राणि, सौधर्मेन्द्र एवं प्रतिष्ठाचार्य द्वारा की जाती है।
प्रतिष्ठा विधि एवं साहित्य :: 349
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